अप्रतिम कविताएँ
पानी उछाल के
आओ हम पतवार फेंककर
कुछ दिन हो लें नदी-ताल के।

नाव किनारे के खजूर से
बाँध बटोरं शंख-सीपियाँ
खुली हवा-पानी से सीखें
शर्म-हया की नई रीतियाँ

बाँचें प्रकृति पुरुष की भाषा
साथ-साथ पानी उछाल के।

लिख डालें फिर नये सिरे से
रँगे हुए पन्नों को धोकर
निजी दायरों से बाहर हो
रागहीन रागों में खोकर

आमंत्रण स्वीकारें उठकर
धूप-छाँव सी हरी डाल के।

नमस्कार पक्के घाटों को
नमस्कार तट के वृक्षों को

हो न सकें यदि लगातार
तब जी लें सुख हम अंतराल के।
- नईम
Poet's Address: Radhagunj Colony, Devas (M.P.)
Ref: Naye Purane, 1999

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इस महीने :
'तोड़ती पत्थर'
सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'


वह तोड़ती पत्थर;
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर—
वह तोड़ती पत्थर।

कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;
श्याम तन, भर बँधा यौवन,
नत नयन प्रिय, कर्म-रत मन,
..

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इस महीने :
'एक अदद तारा मिल जाये'
सत्येन्द्र कुमार रघुवंशी


एक अदद तारा मिल जाये
तो इस नीम अँधेरे में भी
तुमको लम्बा ख़त लिख डालूँ।

छोटे ख़त में आ न सकेंगी
पीड़ा की पर्वतमालाएँ
और छटपटाहट की नदियाँ।
पता नहीं क्या वक़्त हुआ है,
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
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