अप्रतिम कविताएँ
मन हरित क्षण पीत पराग है
नन्ही लता, वल्लरी क्षणिका
जूही चाँदनी हीरक कणिका

बन के फूलों की महक-महक
क्षण-क्षण सार्थक करती जैसे

कभी बकुल फूलों की मिठास में
सूर्य धरा पर विचरण करता

कभी ये नन्ही पाखी जैसा
दाना चुगने नन्हा-नन्हा

कभी नभ विहग जो स्वतंत्र जीव सा
हिरण कुलाँचे मारा करता

कभी तो मन-मन जप-जप करते
वृक्ष साम्राज्य सा नृप हो जाता

नील गगन रंगीन वसंत का
कितना रस पराग सा बहता

प्रकृति की सुंदर सी छटा का
रूप-रूप कस्तूरी होता

झरते जो झरने कल-कल ये
सुर संतूरी मन में सजते

पर्वत की छाती जो तोड़े
उस जल को जग संपदा बताते

कण-कण श्वेत-श्वेत उज्जवल है
धरा प्रकृति की कलकल है

मोक्ष धरा पर जीवित होता
गुफा-कन्दरा पुलकित करता

ओंसकणों से नहलाकर जो
अपने क्षणों को पवित्र करता

कितने शीतल ये संस्कार है
पुष्पगुच्छ सौंदर्यदान है

उत्सवरत इस हरित धरा पर
पीत पराग सौंदर्य पान है

वृक्ष गगनचुंबी आश्रय है
वट के जैसे आदर्श सकल है

पावन पूजन के हेतु से
नारी-प्रकृति का धर्म मिलन है

हरित चादर यह उपवन, वन-वन
मन को सुकोमल करती सी

धरती की उर्वरा सृजन का
गीत अविरत यह गाती सी

पाती-पाती के मन की गाथा
माँ प्रकृति को सुनाती सी

गहराई समझ की महकी
त्याग वसुंधरा सा पाई सी

चिर उत्सव की परंपरा है
हीरक, मुक्तक, माणिक सी

जूही, ओंस और लाल गुलाब सी
रत्न-रत्न में समाई सी

शुभ क्षण पीत गेंदा शेवंती
आजन्म विदाई भरती सी

महक-महक के राग सुनाकर
जीवन प्रभात को गुनती सी

पुष्प-पुष्प की मलिका बनकर
रही प्रकृति माता सी

वन-वन की संपदा जुटाती
शांति वैभव की स्वामिनी सी

आत्मतत्व की आश्रयस्थली वह
हिम-हिम तपती अग्नि सी

उज्ज्वल इस धरा की ईश्वरी
शक्ति संपन्न अधिकारिणी सी

नमन-नमन हे आद्य शक्ति का
सकल सुफल आराध्या सी
- अंतरा करवड़े
Antara Karvade
Email : [email protected]
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विषय:
प्रकृति (41)
अध्यात्म दर्शन (36)

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इस महीने :
'तुम तो पहले ऐसे ना थे'
सत्या मिश्रा


तुम तो पहले ऐसे न थे
रात बिरात आओगे
देर सवेर आओगे
हम नींद में रहें
आँख ना खुले
तो रूठ जाओगे...

स्वप्न में आओगे
दिवास्वप्न दिखाओगे
हम कलम उठाएँगे
तो छिप जाओगे...

बेचैनियों का कभी
..

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इस महीने :
'कुछ प्रेम कविताएँ'
प्रदीप शुक्ला


1.
प्रेम कविता, कहानियाँ और फ़िल्में
जहाँ तक ले जा सकती हैं
मैं गया हूँ उसके पार
कई बार।
इक अजीब-सी बेचैनी होती है वहाँ
जी करता है थाम लूँ कोई चीज
कोई हाथ, कोई सहारा।
मैं टिक नहीं पाता वहाँ देर तक।।

सुनो,
अबसे
..

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इस महीने :
'स्वतंत्रता का दीपक'
गोपालसिंह नेपाली


घोर अंधकार हो, चल रही बयार हो,
आज द्वार द्वार पर यह दिया बुझे नहीं।
यह निशीथ का दिया ला रहा विहान है।

शक्ति का दिया हुआ, शक्ति को दिया हुआ,
भक्ति से दिया हुआ, यह स्वतंत्रता-दिया,
रुक रही न नाव हो, ज़ोर का बहाव हो,
आज गंगधार पर यह दिया बुझे नहीं!
यह स्वदेश का दिया प्राण के समान है!
..

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