अप्रतिम कविताएँ
मैं पूरा कहाँ हूँ
घर से निकल कर भी
घर में थोड़ा रह जाता हूँ !
नदी में नहाकर निकल तो आता हूँ
पर थोड़ा नदी के साथ बह जाता हूँ!

जिससे भी गले मिलता हूँ
उसमें कुछ न कुछ घुल जाता हूँ
उदास आँसुओं में थोड़ा-थोड़ा
धुल जाता हूँ!

हर पेड़ की छाया में
हर मोड़ पर थोड़ा-थोड़ा छूट जाता हूँ!

कटे पेड़ के साथ खड़ी रहती है मेरी परछाईं
पेड़ों पर अपनी छाँव छोड़ घर आता हूँ!

मैं कहाँ पूरा रह पाता हूँ!

जो तुम्हें दिखता हूँ वह आधा-अधूरा हूँ
मैं कहाँ पूरा हूँ!
- बोधिसत्व
विषय:
अध्यात्म दर्शन (36)

काव्यालय को प्राप्त: 14 Oct 2022. काव्यालय पर प्रकाशित: 23 Jun 2023

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इस महीने :
'तुम्हारे साथ रहकर'
सर्वेश्वरदयाल सक्सेना


तुम्हारे साथ रहकर
अक्सर मुझे ऐसा महसूस हुआ है
कि दिशाएँ पास आ गयी हैं,
हर रास्ता छोटा हो गया है,
दुनिया सिमटकर
एक आँगन-सी बन गयी है
जो खचाखच भरा है,
कहीं भी एकान्त नहीं
न बाहर, न भीतर।

हर चीज़ का आकार घट गया है,
पेड़ इतने
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें...
इस महीने :
'हमारी सहयात्रा'
ज्योत्सना मिश्रा


कभी-कभी जीवन कोई घोषणा नहीं करता—
वह बस बहता है,
जैसे कोई पुराना राग,
धीरे-धीरे आत्मा में उतरता हुआ,
बिना शोर, बिना आग्रह।

हमारे साथ के तीस वर्ष पूर्ण हुए हैं।
कभी लगता है हमने समय को जिया,
कभी लगता है समय ने हमें तराशा।
यह साथ केवल वर्ष नहीं थे—
यह दो आत्माओं का मौन संवाद था,
जो शब्दों से परे,
पर भावों से भरपूर रहा।

जब हमने साथ चलना शुरू किया,
तुम थे स्वप्नद्रष्टा—
शब्दों के जादूगर,
भविष्य के रंगीन रेखाचित्रों में डूबे हुए।
और मैं…
मैं थी वह ज़मीन
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
इस महीने :
'तुम तो पहले ऐसे ना थे'
सत्या मिश्रा


तुम तो पहले ऐसे न थे
रात बिरात आओगे
देर सवेर आओगे
हम नींद में रहें
आँख ना खुले
तो रूठ जाओगे...

स्वप्न में आओगे
दिवास्वप्न दिखाओगे
हम कलम उठाएँगे
तो छिप जाओगे...

बेचैनियों का कभी
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें...
इस महीने :
'कुछ प्रेम कविताएँ'
प्रदीप शुक्ला


1.
प्रेम कविता, कहानियाँ और फ़िल्में
जहाँ तक ले जा सकती हैं
मैं गया हूँ उसके पार
कई बार।
इक अजीब-सी बेचैनी होती है वहाँ
जी करता है थाम लूँ कोई चीज
कोई हाथ, कोई सहारा।
मैं टिक नहीं पाता वहाँ देर तक।।

सुनो,
अबसे
..

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