अप्रतिम कविताएँ
लॉकडाउन और मैं
गज़ब वो दिन थे, मैदानों पर होते थे जब सारे खेल;
अब तो घर में बैठे हैं बस, सर में खूब लगाकर तेल।
पुस्तकें सारी पढ़ डाली हैं, रंग डाले हैं सारे चित्र,
धमाचौकड़ी करें भी कैसे, अब जो घर न आते मित्र।

कंप्यूटर पर क्लास है लगती, उछल-कूद भी घर के अन्दर,
घर में ऐसा बंद हुआ मैं मानो चिड़ियाघर में बन्दर!
पक्षी सारे चीं-चीं करके फुर्र-फुर्र कर उड़ जाते हैं,
देखो कैसे घूम रहे हम, कहकर मुँह चिढ़ाते हैं।

थोड़ा गुस्सा आता पर मैं घर में हाथ बँटाता हूँ।
यह सब सीखा घर बैठे-- अब खुद से ही नहाता हूँ,
कस के बाँधूँ मास्क शक्ल पर, घिस-घिस धोऊँ हाथ,
ख़त्म कोरोना को करके मैं होऊँगा आज़ाद!
- टुषी भट्टाचार्य

काव्यालय को प्राप्त: 4 May 2021. काव्यालय पर प्रकाशित: 2 Jul 2021

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इस महीने :
'काल का वार्षिक विलास'
नाथूराम शर्मा 'शंकर'


सविता के सब ओर मही माता चकराती है,
घूम-घूम दिन, रात, महीना वर्ष मनाती है,
कल्प लों अन्त न आता है,
हा, इस अस्थिर काल-चक्र में जीवन जाता है।

छोड़ छदन प्राचीन, नये दल वृक्षों ने धारे,
देख विनाश, विकाश, रूप, रूपक न्यारे-न्यारे,
दुरङ्गी चैत दिखाता है,
हा, इस अस्थिर काल-चक्र में जीवन
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इस महीने :
'ओ माँ बयार'
शान्ति मेहरोत्रा


सूरज को, कच्ची नींद से
जगाओ मत।
दूध-मुँहे बालक-सा
दिन भर झुंझलायेगा
मचलेगा, अलसायेगा
रो कर, चिल्ला कर,
घर सिर पर उठायेगा।
आदत बुरी है यह
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इस महीने :
'आए दिन अलावों के'
इन्दिरा किसलय


आए दिन
जलते हुए, अलावों के !!

सलोनी सांझ
मखमली अंधेरा
थमा हुआ शोर
हर ओर
जी उठे दृश्य
मनोरम गांवों के !!

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