अप्रतिम कविताएँ
धूप ही क्यों
धूप ही क्यों छांव भी दो
पंथ ही क्यों पांव भी दो
सफर लम्बी हो गई अब,
ठहरने को गांव भी दो ।

प्यास ही क्यों नीर भी दो
धार ही क्यों तीर भी दो
जी रही पुरुषार्थ कब से,
अब मुझे तकदीर भी दो ।

पीर ही क्यों प्रीत भी दो
हार ही क्यों जीत भी दो
शुन्य में खोए बहुत अब,
चेतना को गीत भी दो ।

ग्रन्थ ही क्यों ज्ञान भी दो
ज्ञान ही क्यों ध्यान भी दो
तुम हमारी अस्मिता को,
अब निजी पहचान भी दो ।
- साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा
Contributed by: Mahima Bokariya
Email: [email protected]

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इस महीने :
'तोड़ती पत्थर'
सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'


वह तोड़ती पत्थर;
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर—
वह तोड़ती पत्थर।

कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;
श्याम तन, भर बँधा यौवन,
नत नयन प्रिय, कर्म-रत मन,
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
इस महीने :
'एक अदद तारा मिल जाये'
सत्येन्द्र कुमार रघुवंशी


एक अदद तारा मिल जाये
तो इस नीम अँधेरे में भी
तुमको लम्बा ख़त लिख डालूँ।

छोटे ख़त में आ न सकेंगी
पीड़ा की पर्वतमालाएँ
और छटपटाहट की नदियाँ।
पता नहीं क्या वक़्त हुआ है,
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
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