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चाँदनी जगाती है
आजकल तमाम रात
चाँदनी जगाती है|
मुँह पर दे दे छींटे
अधखुले झरोखे से
अन्दर आ जाती है
दबे पाँव धोखे से
माथा छू
निंदिया उचटाती है
बाहर ले जाती है
घण्टों बतियाती है
ठण्डी-ठण्डी छत पर
लिपट-लिपट जाती है
विह्वल मदमाती है
बावरिया बिना बात|
आजकल तमाम रात
चाँदनी जगती है|
-
धर्मवीर भारती
पुस्तक "पाँच जोड़ बाँसुरी" (सम्पादक: चंद्रदेव सिंह - भारतीय ज्ञानपीठ) से
काव्यालय पर प्रकाशित: 13 Oct 2016
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कनुप्रिया (अंश 1) आम्र-बौर का गीत
कनुप्रिया (अंश 2) विप्रलब्धा
कनुप्रिया (अंश 3) उसी आम के नीचे
कनुप्रिया (अंश 4) समुद्र-स्वप्न
कनुप्रिया (अंश 5) समापन
क्योंकि
गुनाह का गीत
चाँदनी जगाती है
शाम: दो मनःस्थितियाँ
इस महीने :
'अक्कड़ मक्कड़'
भवानीप्रसाद मिश्र
अक्कड़ मक्कड़, धूल में धक्कड़,
दोनों मूरख, दोनों अक्खड़,
हाट से लौटे, ठाठ से लौटे,
एक साथ एक बाट से लौटे।
बात-बात में बात ठन गयी,
बांह उठीं और मूछें तन गयीं।
..
पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
वो मेरी जिंदगी में कुछ इस तरह मिले
जैसे छोटी सी छत पर कोई बड़ी पतंग गिरे।
बारहा अब यही डर सताता रहता है के
वक़्त का शैतान बच्चा मुझसे इसे छीन न ले।
~
विनीत मिश्रा
इस महीने :
'प्रथम रश्मि'
सुमित्रानंदन पंत
प्रथम रश्मि का आना रंगिणि!
तूने कैसे पहचाना?
कहाँ, कहाँ हे बाल-विहंगिनि!
पाया तूने वह गाना?
सोयी थी तू स्वप्न नीड़ में,
पंखों के सुख में छिपकर,
..
पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
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