याद किसी की गीत बन गई !
कितना अलबेला सा लगता था, मुझे तुम्हारा हर सपना
साकार बनाने से पहले , क्यों फेरा प्रयेसी मुख अपना
तुम थी कितनी दूर और मैं, नगरी के उस पार खङा था
अरुण कपोलों पर काली सी, दो अलकों का जाल पङा था
अब तुम ही अनचाहे मन से अंतर का संगीत बन गई ।
याद किसी की गीत बन गई !
उस दिन हंसता चांद और तुम , झांक रही छत से मदमाती
आंख मिचौनी सी करती थीं, लट संभालती नयन घुमाती
कसे हुए अंगों में झीने, पट का बंधन भार हो उठा
और तुम्हारी पायल से, मुखरित मेरा संसार हो उठा
सचमुच वह चितवन तो मेरे, अंतर्तम का मीत बन गई ।
याद किसी की गीत बन गई !
तुम ने जो कुछ दिया आज वह मेरा पंथ प्रवाह बना है
आज थके नयनों में पिघला, आंसू मन की दाह बना है
अब न शलभ की पुलक प्रतीक्षा, और न जलने की अभिलाषा
सांसों के बोझिल बंधन में, बंधी अधूरी सी परिभाषा
लेकिन यह तारों की तङपन, धङकन की चिर प्रीत बन गई ।
याद किसी की गीत बन गई !
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महावीर शर्मा