अन्त
झर-झर बहते नेत्रों से,
कौन सा सत्य बहा होगा?
वो सत्य बना आखिर पानी,
जो कहीं नहीं कहा होगा।
झलकती सी बेचैनी को,
कितना धिक्कार मिला होगा?
बाद में सोचे है इंसान,
पहले अंधा-बहरा होगा।
तलाश करे या आस करे,
किस पर विश्वास ज़रा होगा?
कितना गहरा होगा वो दुख,
मृत्यु से जो ढका होगा।
होकर नम फिर बंद हो गईं,
आँखों ने क्या सहा होगा?
हो जिसका क्षण-क्षण मृत्यु,
ये जीवन दीर्घ लगा होगा।
जो मौन हुआ सह-सहकर मौन,
उस मौन का भेद क्या होगा?
न ज्ञात किसी को भेद वो अब,
वो भेद जो साथ गया होगा।
कुछ शेष नहीं इसके पश्चात,
पर क्या विशेष रहा होगा?
ठहराव की आकांक्षा से वो,
यूँ थक कर सोया होगा।
काव्यालय को प्राप्त: 24 Nov 2023.
काव्यालय पर प्रकाशित: 5 Apr 2024
इस महीने :
'हमारी सहयात्रा'
ज्योत्सना मिश्रा
कभी-कभी जीवन कोई घोषणा नहीं करता—
वह बस बहता है,
जैसे कोई पुराना राग,
धीरे-धीरे आत्मा में उतरता हुआ,
बिना शोर, बिना आग्रह।
हमारे साथ के तीस वर्ष पूर्ण हुए हैं।
कभी लगता है हमने समय को जिया,
कभी लगता है समय ने हमें तराशा।
यह साथ केवल वर्ष नहीं थे—
यह दो आत्माओं का मौन संवाद था,
जो शब्दों से परे,
पर भावों से भरपूर रहा।
जब हमने साथ चलना शुरू किया,
तुम थे स्वप्नद्रष्टा—
शब्दों के जादूगर,
भविष्य के रंगीन रेखाचित्रों में डूबे हुए।
और मैं…
मैं थी वह ज़मीन
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