कभी-कभी जीवन कोई घोषणा नहीं करता—
वह बस बहता है,
जैसे कोई पुराना राग,
धीरे-धीरे आत्मा में उतरता हुआ,
बिना शोर, बिना आग्रह।
हमारे साथ के तीस वर्ष पूर्ण हुए हैं।
कभी लगता है हमने समय को जिया,
कभी लगता है समय ने हमें तराशा।
यह साथ केवल वर्ष नहीं थे—
यह दो आत्माओं का मौन संवाद था,
जो शब्दों से परे,
पर भावों से भरपूर रहा।
जब हमने साथ चलना शुरू किया,
तुम थे स्वप्नद्रष्टा—
शब्दों के जादूगर,
भविष्य के रंगीन रेखाचित्रों में डूबे हुए।
और मैं…
मैं थी वह ज़मीन,
जिसने तुम्हारे सपनों को टिकने की ठंडक दी।
जहाँ प्रेम कोई प्रदर्शन नहीं,
बल्कि हर दिन निभाई गई छोटी-छोटी ज़िम्मेदारियाँ थीं,
जो जीवन को एक गीत बनाती रहीं—धीमा, मधुर, सच्चा।
मैंने जाना,
जीवन कोई विशाल ग्रंथ नहीं होता,
वह होता है रसोई की गरम भाप,
बच्चों की हँसी में खोए हुए शब्द,
माँ के फोन की चिन्ता,
और थकान भरे क्षणों में चुपचाप बनी चाय की तसल्ली।
तुमसे मैंने सीखा—
प्रेम को चिल्लाने की ज़रूरत नहीं,
वह मौन में बहता है,
कभी तुम्हारी नज़र की कोर से,
तो कभी तुम्हारे हाथों की गर्मी में।
तुम्हारे स्नेह ने मेरे भीतर कविता को जन्म दिया—
जो किसी डायरी में नहीं,
बल्कि तुम्हारे सान्निध्य में हर दिन लिखी जाती रही।
दार्शनिक कहते हैं—
प्रेम आत्मा का विस्तार है।
और मैंने तुम्हारे संग जाना,
कि जब आत्मा किसी और के लिए जगह बना लेती है,
तो वही बनता है प्रेम,
सहचरण, और ईश्वर की अनुभूति।
इन तीस वर्षों में हमने बहुत कुछ पाया—
अनगिनत सुख, थकन, संघर्ष, और छोटे-छोटे उल्लास।
कुछ खोया भी—कुछ अवसर, कुछ स्वप्न,
पर जो कभी नहीं टूटा—वह था हमारा विश्वास।
और यह विश्वास,
एक मौन पुल की तरह रहा—
जो हमें हर असहमति के बाद भी
एक-दूसरे तक वापस लाता रहा।
धीरे-धीरे, फिर से, हर बार।
तुमने मेरे जीवन को केवल ‘पूर्ण’ नहीं,
बल्कि ‘संपूर्ण’ बना दिया।
जहाँ प्रेम में शांति है,
और पीड़ा में भी सौंदर्य।
अगर तुम न होते,
तो शायद मैं सिर्फ एक स्त्री होती—
कर्तव्यों में लिपटी, स्वप्नों से दूर।
पर तुम्हारे साथ मैं एक सृजन बन पाई,
जो हर दिन तुम्हें देख
नये अर्थ रचती रही।
अब—जब हमारे तीस बरस पूरे हुए हैं,
न कोई आभूषण है, न कोई बड़ा वचन,
बस एक सादी-सी प्रार्थना है—
कि आगे भी मैं तुम्हें वैसे ही देख सकूँ,
जैसे कोई स्त्री अपनी पहली कविता को पढ़ती है—
हल्की झिझक के साथ,
पर गहराई से जुड़ी हुई,
हर बार उसे और अधिक समझती हुई।
तुम मेरी सबसे स्थायी, सबसे सजीव कविता हो।
और मैं…
अब भी तुम्हारी पाठिका हूँ—मन से, आत्मा से।
सदैव तुम्हारी।
काव्यालय को प्राप्त: 15 May 2025.
काव्यालय पर प्रकाशित: 26 Sep 2025