अप्रतिम कविताएँ
दोहे
तिय उसास पिय बिरह तें उससि अधर लौं आइ।
कछु बाहर निकसति कछुक, भीतर को फिरि जाइ॥

गवन समय पिय के कहति, यौं नैनन सों तीय।
रोवन के दिन बहुत हैं, निरखि लेहु खिन पीय॥

लाल एक दृग अगिन तें, जारि दियो सिव मैन।
करि ल्याये मो दहन को, तुम द्ववै पावक नैन॥

कहा कहौं वाकी दसा, जब खग बोलत रात।
'पीय' सुनत ही जियत है, 'कहाँ' सुनति मरि जात॥

देह दिपति छ्बि गेह की, किहि बिधि बरनी जाय।
जा लखि चपला गगन तें, छिति फरकत निज आय॥

चंद्रमुखी जूरो चितै, चित लीन्हो पहचानि।
सीस उठायो है तिमिर, ससि को पीछे जानि॥

मुकुर बिमलता, चंद दुति, कंज मृदुलता पाय।
जनम लेइ जो कंबु तें, लहै कपोल सुभाय॥

मुख छबि निरख चकोर अरु, तन पानिप लखि मीन।
पद पंकज देखत भँवर, होत नयन रसलीन॥

अमी हलाहल मद भरे, सेत, स्याम, रतनार।
जियत, मरत, झुकि-झुकि परत, जेहि चितवत इक बार॥

मुकुत भए घर खोए कै, कानन बैठे जाय।
घर खोजत हैं और को, कीजे कौन उपाय॥

बारन निकट ललाट यों, सोहत टीका साथ।
राहू गहत महु चंद पै, राख्यो सुरपति हाथ॥
- रसलीन

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झर-झर बहते नेत्रों से,
कौन सा सत्य बहा होगा?
वो सत्य बना आखिर पानी,
जो कहीं नहीं कहा होगा।

झलकती सी बेचैनी को,
कितना धिक्कार मिला होगा?
बाद में सोचे है इंसान,
पहले अंधा-बहरा होगा।

तलाश करे या आस करे,
किस पर विश्वास ज़रा होगा?
..

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