अप्रतिम कविताएँ
चाँद के अश्क मीठे
घास का नर्म गलीचा
घर के पीछे
और मन के पीछे तुम

सितारों की तरह टिमटिम
हरी दूब पर असंख्य मोती
दरअसल अपनी ही लिपि के अक्षर हैं
यहाँ समेटने का मतलब बिखरना होता है

मन की ज़मीन पर
मुलायम दूब उग आए हैं
ख़याल के क़दम लिए
उन दूबों पर चलता हूँ

सोचता हूँ तलवों से चिपकी
बूँदों का अब क्या करूं ?
और फिर घबराकर पाँव झट से
समंदर में भिगो आता हूँ

ख़ुश हो लेता हूँ
कि समंदर को
हल्का मीठा चखा दिया

मन के अंदर भी एक समंदर है
लहरें वहाँ भी उमड़ती है
हिचकोले लेती हैं ,दिल पर पड़ती है

और फिर बाँध पसीजता है आँखों में
अब यही सोचता हूँ
चाँद के अश्क़ मीठे
और मेरे नमकीन क्यों ?
- यतीश कुमार
विषय:
प्रेम (60)
बीता समय (17)
विरह (13)
चाँद (7)

काव्यालय को प्राप्त: 14 Oct 2022. काव्यालय पर प्रकाशित: 9 Jun 2023

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इस महीने :
'युद्ध की विभीषिका'
गजेन्द्र सिंह


युद्ध अगर अनिवार्य है सोचो समरांगण का क्या होगा?
ऐसे ही चलता रहा समर तो नई फसल का क्या होगा?

हर ओर धुएँ के बादल हैं, हर ओर आग ये फैली है।
बचपन की आँखें भयाक्रान्त, खण्डहर घर, धरती मैली है।
छाया नभ में काला पतझड़, खो गया कहाँ नीला मंजर?
झरनों का गाना था कल तक, पर आज मौत की रैली है।

किलकारी भरते ..

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ना अब तलवारें, ना ढाल की बात है,
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ड्रोन गगन में, सिग्नल ज़मीन पर,
साइबर कमांड है अब सबसे ऊपर।

सुनो जवानों! ये डिजिटल रण है,
मस्तिष्क और मशीन का यह संगम है।
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भीगा बारिश में दरवाजा चौखट से कुछ झूल गया है।
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नये-नये पद चिन्ह नापता खड़ा हुआ है सहमा-सहमा।
कभी बना था पेड़ सुहाना धूप-छाँव पा लमहा-लमहा।
चौखट में अब जड़ा हुआ है एक जगह पर खड़ा हुआ है,
कभी ठिकाना था विहगों का आज ...

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