अप्रतिम कविताएँ
भीतर बहुत दूर
भीतर बहुत दूर
एक घेरा है
दुनिया के उपजे रास्तों का भूरा विस्तार
आँखों के जलकुंडों के किनारे
तुम्हारे अनगिनत प्रतिरूप
निर्वसन उनसे लिपटती हुई मेरी आत्मा

भीतर बहुत दूर
इस दुनिया के पीछे से
झाँकती है एक दुनिया
प्रकृति की कोमल संतानें
बोती हुई प्रेम के बीज
सूरज अपना मुँह खोले
जलाता दुखों के ढेर

भीतर बहुत दूर
अनाम नदियाँ हैं
समुद्रों के घुमड़ते भँवर
पहाड़ों का गुरुत्व
बियाबानों की निर्जनता
अजन्मे शब्दों के अर्थ
एक बोझिल चंद्रमा
सपनों के प्याले में
गिरती हुई एक रात

भीतर बहुत दूर
क्रूर दृश्यों से बचने की गुफ़ाएँ हैं
उनका सामना करने के लिए
ईंधन बनाने के कारख़ाने
टूटे हुए विश्वासों की प्रेतात्माएँ
हारे हुए मनुष्यों की नींद
अपमानित स्त्रियों के आँसू
असमय छिन गये कई बचपनों की कथा
व्यर्थ होते समय का हिसाब
इन सब के बारे में नहीं लिखी गई एक किताब

एक उजास भीतर बहुत दूर
बहुत दूर एक ओस की बूँद है
जहाँ मैं अपना जीवन बिताती हूँ
मैं एक हरी पत्ती के पीछे छिप जाती हूँ
मैं उगाती हूँ शब्दों का एक पेड़
कोरे पन्ने पर जैसे धूप और बारिश
भीतर प्रकाश की एक पृथ्वी
दूर जाती एक सड़क के पार ।

- अनीता वर्मा

काव्यालय को प्राप्त: 14 Jul 2022. काव्यालय पर प्रकाशित: 19 Aug 2022

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'कमरे में धूप'
कुंवर नारायण


हवा और दरवाज़ों में बहस होती रही,
दीवारें सुनती रहीं।
धूप चुपचाप एक कुरसी पर बैठी
किरणों के ऊन का स्वेटर बुनती रही।

सहसा किसी बात पर बिगड़ कर
हवा ने दरवाज़े को तड़ से
एक थप्पड़ जड़ दिया !

खिड़कियाँ गरज उठीं,
अख़बार उठ कर
..

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'खिड़की और किरण'
नूपुर अशोक


हर रोज़ की तरह
रोशनी की किरण
आज भी भागती हुई आई
उस कमरे में फुदकने के लिए
मेज़ के टुकड़े करने के लिए
पलंग पर सो रहने के लिए

भागती हुई उस किरण ने
..

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'किरण'
सियाराम शरण गुप्त


ज्ञात नहीं जानें किस द्वार से
कौन से प्रकार से,
मेरे गृहकक्ष में,
दुस्तर-तिमिरदुर्ग-दुर्गम-विपक्ष में-
उज्ज्वल प्रभामयी
एकाएक कोमल किरण एक आ गयी।
बीच से अँधेरे के
..

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इस महीने :
'रोशनी'
मधुप मोहता


रात, हर रात बहुत देर गए,
तेरी खिड़की से, रोशनी छनकर,
मेरे कमरे के दरो-दीवारों पर,
जैसे दस्तक सी दिया करती है।

मैं खोल देता हूँ ..

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