मैं अपने
इस तुच्छ एकाकीपन से ही
इतना विचलित हो जाता हूँ
तो सागर!
तुम अपना यह विराट अकेलापन
कैसे झेलते हो?
समय के अन्तहीन छोरों में
इस क्षितिज से उस क्षितिज तक
यह साँ-साँ करता हुआ
फुफकारता सन्नाटा -
युगों की उड़ती धूल में
अन्तहीन रेगिस्तान का
निपट एकाकी सफ़र -
सदियों से जागती
खुली हुई आँखों में
महीन रेत-सी किरकिराती
असीम प्रतीक्षा!
- सचमुच
सागर, तुम्हें यों
अकेला छोड़ कर जाने का
मन नहीं होता
लेकिन तुम्हारे पास रह कर भी
क्या कोई
तुम्हारे अकेलेपन को बाँट सकता है?
वह कौन है
जो अनादि से अनन्त तक
तुम्हारा हाथ थामे चल सके,
गहरे निःश्वासों के साथ
उठते-गिरते तुम्हारे वक्ष को सहलाये?
किस के कान
तुम्हारी धड़कनों को सुन सकेंगे,
कौन से हाथ
तुम्हारे माथे पर पड़ी
दर्द की सलवटों को हटायेंगे
या बिखरे हुए बालों को
सँवारने का साहस जुटा पायेंगे?
किस का अगाध प्यार
तुम्हारे एकाकीपन को भी भिगो पायेगा?
मुझे तो लगता है
ओ सागर,
अकेला होना
हर विराट् की नियति है।
वह एक से अनेक होने की
कितनी ही चेष्टा करे
अपनी ही माया से, लीला से,
लहराती लहरों से
खुद को बहलाये
पर अनन्तः रहता एकाकी है।
- फिर भी
तुम्हें छोड़ कर जाते हुए
मन कुछ उदास हुआ जाता है -
(शायद यही मोह है, शायद यही अहं है!)
- तुम्हारे पास
एक अजनबी-सी
पहचान लिये आया था
एक विराट् अकेलेपन का
एक अकिंचन-सा कण ले कर जा रहा हूँ!
-
कुलजीत