अप्रतिम कविताएँ
विदा के क्षण
मैं अपने
इस तुच्छ एकाकीपन से ही
इतना विचलित हो जाता हूँ
तो सागर!
तुम अपना यह विराट अकेलापन
कैसे झेलते हो?

समय के अन्तहीन छोरों में
इस क्षितिज से उस क्षितिज तक
यह साँ-साँ करता हुआ
फुफकारता सन्नाटा -
युगों की उड़ती धूल में
अन्तहीन रेगिस्तान का
निपट एकाकी सफ़र -
सदियों से जागती
खुली हुई आँखों में
महीन रेत-सी किरकिराती
असीम प्रतीक्षा!
         - सचमुच
         सागर, तुम्हें यों
         अकेला छोड़ कर जाने का
         मन नहीं होता
लेकिन तुम्हारे पास रह कर भी
क्या कोई
तुम्हारे अकेलेपन को बाँट सकता है?

वह कौन है
जो अनादि से अनन्त तक
तुम्हारा हाथ थामे चल सके,
गहरे निःश्वासों के साथ
उठते-गिरते तुम्हारे वक्ष को सहलाये?
किस के कान
तुम्हारी धड़कनों को सुन सकेंगे,
कौन से हाथ
तुम्हारे माथे पर पड़ी
दर्द की सलवटों को हटायेंगे
या बिखरे हुए बालों को
सँवारने का साहस जुटा पायेंगे?
किस का अगाध प्यार
तुम्हारे एकाकीपन को भी भिगो पायेगा?

मुझे तो लगता है
ओ सागर,
अकेला होना
हर विराट् की नियति है।
वह एक से अनेक होने की
कितनी ही चेष्टा करे
अपनी ही माया से, लीला से,
लहराती लहरों से
खुद को बहलाये
पर अनन्तः रहता एकाकी है।

         - फिर भी
         तुम्हें छोड़ कर जाते हुए
         मन कुछ उदास हुआ जाता है -
                 (शायद यही मोह है, शायद यही अहं है!)

         - तुम्हारे पास
         एक अजनबी-सी
         पहचान लिये आया था
         एक विराट् अकेलेपन का
         एक अकिंचन-सा कण ले कर जा रहा हूँ!
- कुलजीत
Ref: Naya Prateek, March,1976
विषय:
विस्तार (13)
एकान्त (3)
सागर (3)

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इस महीने :
'हमारी सहयात्रा'
ज्योत्सना मिश्रा


कभी-कभी जीवन कोई घोषणा नहीं करता—
वह बस बहता है,
जैसे कोई पुराना राग,
धीरे-धीरे आत्मा में उतरता हुआ,
बिना शोर, बिना आग्रह।

हमारे साथ के तीस वर्ष पूर्ण हुए हैं।
कभी लगता है हमने समय को जिया,
कभी लगता है समय ने हमें तराशा।
यह साथ केवल वर्ष नहीं थे—
यह दो आत्माओं का मौन संवाद था,
जो शब्दों से परे,
पर भावों से भरपूर रहा।

जब हमने साथ चलना शुरू किया,
तुम थे स्वप्नद्रष्टा—
शब्दों के जादूगर,
भविष्य के रंगीन रेखाचित्रों में डूबे हुए।
और मैं…
मैं थी वह ज़मीन
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
इस महीने :
'तुम तो पहले ऐसे ना थे'
सत्या मिश्रा


तुम तो पहले ऐसे न थे
रात बिरात आओगे
देर सवेर आओगे
हम नींद में रहें
आँख ना खुले
तो रूठ जाओगे...

स्वप्न में आओगे
दिवास्वप्न दिखाओगे
हम कलम उठाएँगे
तो छिप जाओगे...

बेचैनियों का कभी
..

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इस महीने :
'कुछ प्रेम कविताएँ'
प्रदीप शुक्ला


1.
प्रेम कविता, कहानियाँ और फ़िल्में
जहाँ तक ले जा सकती हैं
मैं गया हूँ उसके पार
कई बार।
इक अजीब-सी बेचैनी होती है वहाँ
जी करता है थाम लूँ कोई चीज
कोई हाथ, कोई सहारा।
मैं टिक नहीं पाता वहाँ देर तक।।

सुनो,
अबसे
..

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