अप्रतिम कविताएँ
वाणी वैभव
मातृभाषा भिन्न है विभिन्न भाषाभाषियों की,
भिन्न भिन्न भाँति बोली लिखी पढ़ी जाती है।
अवधी, बिहारी, ब्रज, बँगला, मराठी, सिन्धी,
कन्नड़, कोंकण, मारवाड़ी, गुजराती है॥
तेलगू, तमिल मुशकिल गिन पाना किन्तु,
एक बात "वंचक" समान पाई जाती है।
लेते ही जनम "कहाँ-कहाँ" कहते हैं सभी,
सभी की प्राकृत भाषा एक ही लखाती है॥

आके धराधाम पे तमाम सह यातनायें,
मानव माल आँख है प्रथम जब खोलता।
जननी-जनक चाहे जिस भाषा के हों भाषी,
विवश जिज्ञासा "कहाँ-कहाँ" ही है बोलता॥
"क" से "ह" है व्यंजन औ स्वर "अ" से "अँ" तलक,
इन्ही से बना के शब्द भाव है किलोलता।
"वंचक" है भाषा यही सभी की प्राकृत एक,
अज्ञ वो है जो है अन्य और को टटोलता॥
- लक्ष्मीकान्त मिश्र "वंचक"
Poet's Address: 3/18 Shivala. Varanasi
विषय:
भाषा (4)

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इस महीने :
'हमारी सहयात्रा'
ज्योत्सना मिश्रा


कभी-कभी जीवन कोई घोषणा नहीं करता—
वह बस बहता है,
जैसे कोई पुराना राग,
धीरे-धीरे आत्मा में उतरता हुआ,
बिना शोर, बिना आग्रह।

हमारे साथ के तीस वर्ष पूर्ण हुए हैं।
कभी लगता है हमने समय को जिया,
कभी लगता है समय ने हमें तराशा।
यह साथ केवल वर्ष नहीं थे—
यह दो आत्माओं का मौन संवाद था,
जो शब्दों से परे,
पर भावों से भरपूर रहा।

जब हमने साथ चलना शुरू किया,
तुम थे स्वप्नद्रष्टा—
शब्दों के जादूगर,
भविष्य के रंगीन रेखाचित्रों में डूबे हुए।
और मैं…
मैं थी वह ज़मीन
..

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इस महीने :
'तुम तो पहले ऐसे ना थे'
सत्या मिश्रा


तुम तो पहले ऐसे न थे
रात बिरात आओगे
देर सवेर आओगे
हम नींद में रहें
आँख ना खुले
तो रूठ जाओगे...

स्वप्न में आओगे
दिवास्वप्न दिखाओगे
हम कलम उठाएँगे
तो छिप जाओगे...

बेचैनियों का कभी
..

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इस महीने :
'कुछ प्रेम कविताएँ'
प्रदीप शुक्ला


1.
प्रेम कविता, कहानियाँ और फ़िल्में
जहाँ तक ले जा सकती हैं
मैं गया हूँ उसके पार
कई बार।
इक अजीब-सी बेचैनी होती है वहाँ
जी करता है थाम लूँ कोई चीज
कोई हाथ, कोई सहारा।
मैं टिक नहीं पाता वहाँ देर तक।।

सुनो,
अबसे
..

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