गहराती हुई शाम है
और उचटे हुए मन पर अबूझ-सी उदासी।
कच्ची सी एक सड़क है,
धान खेतों से होकर गुजरती हुई
दूर तक चली जाती है —
पैना-सा एक मोड़ है
और भटके हुऐ दो विहग।
गहराती हुई शाम है,
घनी पसरी हुई एक खामोशी,
दूर कहीं बजती हुई बंसी के स्वर में
आहिस्ता-आहिस्ता पलाश के फूल
फूट रहे हैं ...
और असंख्य तारों को कतारबद्ध
गिनते हुए बैठे हैं हम दोनों।
काव्यालय को प्राप्त: 13 Apr 2018.
काव्यालय पर प्रकाशित: 13 Sep 2018