अप्रतिम कविताएँ

शाम: एक दृश्य
गहराती हुई शाम है
और उचटे हुए मन पर अबूझ-सी उदासी।

कच्ची सी एक सड़क है,
धान खेतों से होकर गुजरती हुई
दूर तक चली जाती है —
पैना-सा एक मोड़ है
और भटके हुऐ दो विहग।

गहराती हुई शाम है,
घनी पसरी हुई एक खामोशी,
दूर कहीं बजती हुई बंसी के स्वर में
आहिस्ता-आहिस्ता पलाश के फूल
फूट रहे हैं ...
और असंख्य तारों को कतारबद्ध
गिनते हुए बैठे हैं हम दोनों।
- फाल्गुनी रॉय
Poet's email: [email protected]
विषय:
शाम (11)
उदासी (19)

काव्यालय को प्राप्त: 13 Apr 2018. काव्यालय पर प्रकाशित: 13 Sep 2018

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इस महीने :
'छाता '
प्रेमरंजन अनिमेष


जिनके सिर ढँकने के लिए
छतें होती हैं
वही रखते हैं छाते

हर बार सोचता हूँ
एक छत का जुगाड़ करुँगा
और लूँगा एक छाता

इस शहर के लोगों के पास
जो छाता है
उसमें

..

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इस महीने :
'एक मनःस्थिति '
शान्ति मेहरोत्रा


कभी-कभी लगता है
जैसे घर की पक्की छत, दीवारें, चौखटें
मेरी गरम साँसों से पिघल कर
मोम-सी बह गई हैं।

केवल ये खिड़कियाँ-दरवाजे जैसे
कभी ..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
इस महीने :
'खिलौने की चाबी'
नूपुर अशोक


इतनी बार भरी गई है
दुःख, तकलीफ और त्याग की चाबी
कि माँ बन चुकी है एक खिलौना
घूम रही है गोल-गोल
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
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