समय की शिला पर मधुर चित्र कितने
किसी ने बनाये, किसी ने मिटाये।
किसी ने लिखी आँसुओं से कहानी
किसी ने पढ़ा किन्तु दो बूंद पानी
इसी में गये बीत दिन ज़िन्दगी के
गयी घुल जवानी, गयी मिट निशानी।
विकल सिन्धु के साध के मेघ कितने
धरा ने उठाये, गगन ने गिराये।
शलभ ने शिखा को सदा ध्येय माना,
किसी को लगा यह मरण का बहाना,
शलभ जल न पाया, शलभ मिट न पाया
तिमिर में उसे पर मिला क्या ठिकाना?
प्रणय-पंथ पर प्राण के दीप कितने
मिलन ने जलाये, विरह ने बुझाये।
भटकती हुई राह में वंचना की
रुकी श्रांत हो जब लहर चेतना की
तिमिर-आवरण ज्योति का वर बना तब
कि टूटी तभी श्रृंखला साधना की।
नयन-प्राण में रूप के स्वप्न कितने
निशा ने जगाये, उषा ने सुलाये।
सुरभि की अनिल-पंख पर मौन भाषा
उड़ी, वंदना की जगी सुप्त आशा
तुहिन-बिंदु बनकर बिखर पर गये स्वर
नहीं बुझ सकी अर्चना की पिपासा।
किसी के चरण पर वरण-फूल कितने
लता ने चढ़ाये, लहर ने बहाये।
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शम्भुनाथ सिंह