सोम हो गए स्वप्न, जीवन भर अमावस।
पुनः झरता एकदा आलोक-पावस।
जगत सीमातीत मरुस्थल-सा अनुर्वर।
झाड़ियाँ हैं ठूंठ हैं या अस्थि-पंजर।
स्रोत आशा के पुनः भीतर जगाएं।
फिर अलक्षित क्षितिज से सन्देश आयें।
हम हलाहल पान कर जो जल रहे हैं।
खोज तो पीयूष-मधु की कर रहे हैं।
क्या हुआ हों पथ हमारे व्योम-विस्तृत।
कर लें मन-पंछी बसेरा एक निर्मित।
आलोक -- रोशनी; पावस -- बरसात; सीमातीत -- सीमा के परे; मरुस्थल-सा -- रेगिस्तान सा; अनुर्वर -- जो उपजाऊ नहीं है; अलक्षित -- अदृश्य; पीयूष -- अमृत; व्योम-विस्तृत -- आकाश में फैला हुआ;
काव्यालय को प्राप्त: 24 May 2018.
काव्यालय पर प्रकाशित: 26 Jun 2020