अप्रतिम कविताएँ
फूल नहीं बदले गुलदस्तों के
टूटे आस्तीन का बटन
या कुर्ते की खुले सिवन
कदम-कदम पर मौके, तुम्हें याद करने के।
        फूल नहीं बदले गुलदस्तों के
        धूल मेजपोश पर जमी हुई।
        जहाँ-तहाँ पड़ी दस किताबों पर
        घनी सौ उदासियाँ थमी हुई।
पोर-पोर टूटता बदन
कुछ कहने-सुनने का मन
कदम-कदम पर मौके, तुम्हें याद करने के।
        अरसे से बदला रूमाल नहीं
        चाभी क्या जाने रख दी कहाँ।
        दर्पण पर सिंदूरी रेख नहीं
        चीज़ नहीं मिलती रख दो जहाँ।
चौक की धुआँती घुटन
सुग्गे की सुमिरिनी रटन
कदम-कदम पर मौके, तुम्हें याद करने के।
        किसे पड़ी, मछली-सी तड़प जाए
        गाल शेव करने में छिल गया।
        तुमने जो कलम एक रोपी थी
        उसमें पहला गुलाब खिल गया।
पत्र की प्रतीक्षा के क्षण
शहद की शराब की चुभन
कदम-कदम पर मौके, तुम्हें याद करने के।
- उमाकान्त मालविय
विषय:
विरह (13)
विवाह (7)

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इस महीने :
'दरवाजे में बचा वन'
गजेन्द्र सिंह


भीगा बारिश में दरवाजा चौखट से कुछ झूल गया है।
कभी पेड़ था, ये दरवाजा सत्य ये शायद भूल गया है।

नये-नये पद चिन्ह नापता खड़ा हुआ है सहमा-सहमा।
कभी बना था पेड़ सुहाना धूप-छाँव पा लमहा-लमहा।
चौखट में अब जड़ा हुआ है एक जगह पर खड़ा हुआ है,
कभी ठिकाना था विहगों का आज ...

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पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
इस महीने :
'पेड़ों का अंतर्मन'
हेमंत देवलेकर


कल मानसून की पहली बरसात हुई
और आज यह दरवाज़ा
ख़ुशी से फूल गया है

खिड़की दरवाज़े महज़ लकड़ी नहीं
विस्थापित जंगल होते हैं

मुझे लगा, मैं पेड़ों के बीच से आता-जाता हूँ
टहनियों पर ...
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इस महीने :
'छाता '
प्रेमरंजन अनिमेष


जिनके सिर ढँकने के लिए
छतें होती हैं
वही रखते हैं छाते

हर बार सोचता हूँ
एक छत का जुगाड़ करुँगा
और लूँगा एक छाता

इस शहर के लोगों के पास
जो छाता है
उसमें

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इस महीने :
'एक मनःस्थिति '
शान्ति मेहरोत्रा


कभी-कभी लगता है
जैसे घर की पक्की छत, दीवारें, चौखटें
मेरी गरम साँसों से पिघल कर
मोम-सी बह गई हैं।

केवल ये खिड़कियाँ-दरवाजे जैसे
कभी ..

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इस महीने :
'खिलौने की चाबी'
नूपुर अशोक


इतनी बार भरी गई है
दुःख, तकलीफ और त्याग की चाबी
कि माँ बन चुकी है एक खिलौना
घूम रही है गोल-गोल
..

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