अप्रतिम कविताएँ
पतझड़ और वसंत
हाय कितना निष्ठुर था वो पतझड़,
जीवन युक्त होकर भी कितने
निर्जीव लगते थे वो वृक्ष,
न कोई संवाद, न वाद-विवाद,
बस खड़े खड़े सहते रहते थे,
शिशिर की नम रातों में
उग्र समीर का आर्तनाद |
हे शशि इस तम् के सागर
का कोई है क्या पार कहीं,
कैसे सहते हैं जीव सभी
इस शीत रिपु के सर्प दंश |
निरुत्तर शशि, मौन धरा
स्तंभित शतदल, क्षीण प्रभा
संकुचित होकर शशि,
घनदल के पीछे छिप चला,
मीलों दूर किसी श्रृगाल ने
सहमति में हुंकार भरा |

जीवन का है चहुँ ओर प्रकाश,
कण कण में हैं अशंख्य प्राण |
चारों ओर हो रहा मधुर गान,
नव छंद नव रंग ले आया नया विहान |
यह कौन नया आगंतुक है ?
जिसके स्वागत में सजी दिशाएं सारी ,
महक रही फूलों की खुशबू से क्यारी क्यारी |
पीकी तू ही बता दे,
किसका संदेशा पहुचाने तू फिरती है मारी मारी |
उन्ही पुराने वृक्षों ने भी नए नए पत्ते पाए
अनगिनत फूलों से रंजित, अनेकों मकरंदों से सुसज्जित
सारा चमन मधुमय है सारा आलम मंगलमय
चारों ओर कोलाहल है जीवन का प्रतिपल सृजन |
तभी कहीं से छोटी तितली पर फैलाती
थोड़ा शर्माती इठलाती फिर, दूर जरा उड़ जाती |
कभी इस फूल कभी उस कली
कभी पास पास कभी दूर चली
कभी हवा के झोंके से लड़ती
कभी फूल के पास पहुच के भी सहमी सहमी रुकी रहती,
आखिर एक फूल उसे पसंद आया, और वो उसपर बैठ गयी
वृछ हँसे फिर अपनी डालियों को हिला,
मानो एक दुसरे से कहा,
पतझड़ के गर्भ से जन्मा
जीवन का कितना सुन्दर ये क्रम !
- अरुण कुमार
Contributed by: Arun Kumar
Email: arun_k7<at>yahoo.
विषय:
प्रकृति (41)
वसन्त (5)
पतझड़ (2)

***
सहयोग दें
विज्ञापनों के विकर्षण से मुक्त, काव्य के सुकून का शान्तिदायक घर... काव्यालय ऐसा बना रहे, इसके लिए सहयोग दे।

₹ 500
₹ 250
अन्य राशि
इस महीने :
'हमारी सहयात्रा'
ज्योत्सना मिश्रा


कभी-कभी जीवन कोई घोषणा नहीं करता—
वह बस बहता है,
जैसे कोई पुराना राग,
धीरे-धीरे आत्मा में उतरता हुआ,
बिना शोर, बिना आग्रह।

हमारे साथ के तीस वर्ष पूर्ण हुए हैं।
कभी लगता है हमने समय को जिया,
कभी लगता है समय ने हमें तराशा।
यह साथ केवल वर्ष नहीं थे—
यह दो आत्माओं का मौन संवाद था,
जो शब्दों से परे,
पर भावों से भरपूर रहा।

जब हमने साथ चलना शुरू किया,
तुम थे स्वप्नद्रष्टा—
शब्दों के जादूगर,
भविष्य के रंगीन रेखाचित्रों में डूबे हुए।
और मैं…
मैं थी वह ज़मीन
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
इस महीने :
'तुम तो पहले ऐसे ना थे'
सत्या मिश्रा


तुम तो पहले ऐसे न थे
रात बिरात आओगे
देर सवेर आओगे
हम नींद में रहें
आँख ना खुले
तो रूठ जाओगे...

स्वप्न में आओगे
दिवास्वप्न दिखाओगे
हम कलम उठाएँगे
तो छिप जाओगे...

बेचैनियों का कभी
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें...
इस महीने :
'कुछ प्रेम कविताएँ'
प्रदीप शुक्ला


1.
प्रेम कविता, कहानियाँ और फ़िल्में
जहाँ तक ले जा सकती हैं
मैं गया हूँ उसके पार
कई बार।
इक अजीब-सी बेचैनी होती है वहाँ
जी करता है थाम लूँ कोई चीज
कोई हाथ, कोई सहारा।
मैं टिक नहीं पाता वहाँ देर तक।।

सुनो,
अबसे
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
संग्रह से कोई भी रचना | काव्य विभाग: शिलाधार युगवाणी नव-कुसुम काव्य-सेतु | प्रतिध्वनि | काव्य लेख
सम्पर्क करें | हमारा परिचय
सहयोग दें

a  MANASKRITI  website