अप्रतिम कविताएँ
मेरे सम्बन्धीजन
समाधि के विस्तृत महाकक्ष में,
जो लाखों झिलमिलाते प्रकाशों से दीप्त,
और बर्फीले बादल की चित्र यवनिका से शोभायमान है,
मैंने गुप्त रूप से अपने सभी — दीन-हीन, गर्वित सम्बन्धीजनों को देखा।

महान प्रीतिभोज संगीत से उमड़ा,
ओम का नगाड़ा बजा अपनी ताल में।
अतिथि नाना प्रकार के सजे,
कुछ साधारण, कुछ शानदार पोशाकों में।

चहुँ ओर विविध विशाल मेज़ों के
पृथ्वी, चन्द्रमा, सूर्य और तारों के,
असंख्य मौन या मुखर अतिथि
मना रहे उत्साह से प्रीतिभोज देवी प्रकृति का।

नन्हें नेत्रों वाली, चमकदार रेत,
प्यासी, महासागर के जीवन का करती पान :
लड़ा था एक बार मैं याद है मुझे अच्छी तरह
रेत-सम्बन्धियों के साथ, समुद्र की एक चुस्की के लिए।

हाँ, मैं उन पुरानी चट्टानों को जानता हूँ
जिन्होंने मुझे अपनी पथरीली गोद में थामे रखा
जब मैं, एक शिशु पौधा,
अति मुक्त हवाओं के संग उड़ चलने से था नाराज।

भरत पक्षी, कोयल, तीतर मधुर,
हिरण, भेड़, सिंह महान,
शार्क और समुद्र के जीव विशाल,
प्रेम और शान्ति में किया सबने अभिवादन मेरा।
जब प्रथम परमाणु और ताराधूल, प्रकट हुए
जब वेद, बाइबल, कुरान, गाए गए
मैं शामिल हुआ प्रत्येक गायक-मण्डल में; उनके आद्य रोमांचक गीत
अब भी उच्च स्वर में हैं गूंजते, मेरी आत्मा में।
- परमहंस योगानन्द
यवनिका : परदा; आद्य : आदिकालीन
रचना योगानन्द आश्रम की मासिक पत्रिका से ली गई है।
Autobiography of A Yogi ( योगी कथामृत ) के लेखक।

काव्यालय को प्राप्त: 15 Feb 2017. काव्यालय पर प्रकाशित: 5 Jul 2018

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इस महीने :
'कमरे में धूप'
कुंवर नारायण


हवा और दरवाज़ों में बहस होती रही,
दीवारें सुनती रहीं।
धूप चुपचाप एक कुरसी पर बैठी
किरणों के ऊन का स्वेटर बुनती रही।

सहसा किसी बात पर बिगड़ कर
हवा ने दरवाज़े को तड़ से
एक थप्पड़ जड़ दिया !

खिड़कियाँ गरज उठीं,
अख़बार उठ कर
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें...
इस महीने :
'खिड़की और किरण'
नूपुर अशोक


हर रोज़ की तरह
रोशनी की किरण
आज भी भागती हुई आई
उस कमरे में फुदकने के लिए
मेज़ के टुकड़े करने के लिए
पलंग पर सो रहने के लिए

भागती हुई उस किरण ने
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें...
इस महीने :
'किरण'
सियाराम शरण गुप्त


ज्ञात नहीं जानें किस द्वार से
कौन से प्रकार से,
मेरे गृहकक्ष में,
दुस्तर-तिमिरदुर्ग-दुर्गम-विपक्ष में-
उज्ज्वल प्रभामयी
एकाएक कोमल किरण एक आ गयी।
बीच से अँधेरे के
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें...
इस महीने :
'रोशनी'
मधुप मोहता


रात, हर रात बहुत देर गए,
तेरी खिड़की से, रोशनी छनकर,
मेरे कमरे के दरो-दीवारों पर,
जैसे दस्तक सी दिया करती है।

मैं खोल देता हूँ ..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें...
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