अप्रतिम कविताएँ
मैं दृष्टा हूँ
देखता हूँ गगन, सुमन और समुंदर की तरुणाई को,
प्रति पल धीमी होती हुई इस समय की अरुणाई को।
दु:ख के रक्त कणोंसे लतपथ जीवन के अवसाद को,
या सुख के प्यालों से छके हुए मन के अंतर्नाद को।

शीत उष्ण और वर्षा पतझड़ ऋतुएं आती जाती हैं,
इस शरीर और मन के द्वारों पर दस्तक दे जाती हैं।
मिलना और बिछोह हृदय के तारो को सहलाता है,
इस जीवन का मायाजाल शरीर को बांधे जाता है।

पर मैं लिप्त नहीं, मैं भुक्त नहीं,
अतृप्त नहीं, आसक्त नहीं।
ये समग्र विलास है जग मेरा,
पर मैं करण नहीं मैं संज्ञा नहीं।

मैं तो केवल दृष्टा हूँ,
बिन आँखों के, बिन साँसों के।
देख रहा हूँ हो विस्मित,
जिस सृष्टि का मैं सृष्टा हूँ।
- रवि सिंघल
Ravi Singhal
Email: [email protected]
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'या देवी...'
उपमा ऋचा


1
सृष्टि की अतल आंखों में
फिर उतरा है शक्ति का अनंत राग
धूम्र गंध के आवक स्वप्न रचती
फिर लौट आई है देवी
रंग और ध्वनि का निरंजन नाद बनकर
लेकिन अभी टूटी नहीं है धरती की नींद
इसलिए जागेगी देवी अहोरात्र...

2
पूरब में शुरू होते ही
दिन का अनुष्ठान
जाग उठी हैं सैकड़ों देवियाँ
एक-साथ
ये देवियाँ जानती हैं कि
..

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