अप्रतिम कविताएँ

मुकरियाँ
रात समय वह मेरे आवे। भोर भये वह घर उठि जावे॥
यह अचरज है सबसे न्यारा। ऐ सखि साजन? ना सखि तारा॥

नंगे पाँव फिरन नहिं देत। पाँव से मिट्टी लगन नहिं देत॥
पाँव का चूमा लेत निपूता। ऐ सखि साजन? ना सखि जूता॥

वह आवे तब शादी होय। उस बिन दूजा और न कोय॥
मीठे लागें वाके बोल। ऐ सखि साजन? ना सखि ढोल॥

जब माँगू तब जल भरि लावे। मेरे मन की तपन बुझावे॥
मन का भारी तन का छोटा। ऐ सखि साजन? ना सखि लोटा॥

बेर-बेर सोवतहिं जगावे। ना जागूँ तो काटे खावे॥
व्याकुल हुई मैं हक्की बक्की। ऐ सखि साजन? ना सखि मक्खी॥

अति सुरंग है रंग रंगीलो। है गुणवंत बहुत चटकीलो॥
राम भजन बिन कभी न सोता। क्यों सखि साजन? ना सखि तोता॥

अर्ध निशा वह आया भौन। सुंदरता बरने कवि कौन॥
निरखत ही मन भयो अनंद। क्यों सखि साजन? ना सखि चंद॥

शोभा सदा बढ़ावन हारा। आँखिन से छिन होत न न्यारा॥
आठ पहर मेरो मनरंजन। क्यों सखि साजन? ना सखि अंजन॥

जीवन सब जग जासों कहै। वा बिनु नेक न धीरज रहै॥
हरै छिनक में हिय की पीर। क्यों सखि साजन? ना सखि नीर॥

बिन आये सबहीं सुख भूले। आये ते अँग-अँग सब फूले॥
सीरी भई लगावत छाती। क्यों सखि साजन? ना सखि पाति॥
- अमीर खुसरो
काव्यपाठ: शिखा गुप्ता

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इस महीने :
'अभिसार'
रवीन्द्रनाथ टगोर


एक बार की है यह बात, बड़ी अँधेरी थी वह रात,
चाँद मलिन और लुप्त थे तारे, मेघ पाश में सुप्त थे सारे,

पवन बहा फिर अमोघ अचूक, घर घर की बाती को फूंक,
गहन निशा बंद घरों के द्वार, स्तब्ध था मानो संसार।

ऐसी एक श्रावण रजनी में, अति प्राचीन मथुरा नगरी में,
प्राचीर तले अति श्रांत शुद्धचित्त, संन्यासी उपगुप्त थे निद्रित।

सहसा नूपुर ध्वनि ज्यों निर्झर, कोमल चरण पड़े जो उर पर,
चौंके साधक टूटी निद्रा, छूट गयी आँखों से तन्द्रा।
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ये पंक्तियाँ विनोद तिवारी के व्यक्तित्व का सार हैं‌ -- प्रकृति के रहस्यों को बेनक़ाब करने की एक वैज्ञानिक की ललक, दिलेरी, और कवि-मन की कोमलता और रूमानियत। साथ ही ये पंक्तियाँ इस पूरी पुस्तक के चमन में आपको आमंत्रित भी कर रही हैं।

इस महीने :
'जो मेरे घर कभी नहीं आएंगे'
विनोद कुमार शुक्ल


जो मेरे घर कभी नहीं आएँगे
मैं उनसे मिलने
उनके पास चला जाऊँगा।

एक उफनती नदी कभी नहीं आएगी मेरे घर
नदी जैसे लोगों से मिलने
नदी किनारे जाऊँगा
कुछ तैरूँगा और डूब जाऊँगा

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