अप्रतिम कविताएँ
काल का वार्षिक विलास
सविता के सब ओर मही माता चकराती है,
घूम-घूम दिन, रात, महीना वर्ष मनाती है,
कल्प लों अन्त न आता है,
हा, इस अस्थिर काल-चक्र में जीवन जाता है।

छोड़ छदन प्राचीन, नये दल वृक्षों ने धारे,
देख विनाश, विकाश, रूप, रूपक न्यारे-न्यारे,
दुरङ्गी चैत दिखाता है,
हा, इस अस्थिर काल-चक्र में जीवन जाता है।

सूख गये सब खेत सुखा दी सारी हरियाली,
गहरी तीत निचोड़ मेदिनी रूखी कर डाली,
धूल वैशाख उड़ाता है,
हा, इस अस्थिर काल-चक्र में जीवन जाता है।

दामिनि को दमकाय दहाड़े धाराधर धाये,
मारुत ने झकझोर झुकाये झूमे झर लाये,
लगी आषाढ़ बुझाता है,
हा, इस अस्थिर काल-चक्र में जीवन जाता है।

गुल्म, लता, तरु-पुञ्ज अनूठे दृश्य दिखाते हैं,
बरसे मेह विहंग विलासी मङ्गल गाते हैं,
झुलाता श्रावण भाता है,
हा, इस अस्थिर काल-चक्र में जीवन जाता है।

उपजे जन्तु अनेक झिलारे झील, नदी, नाले,
भेद मिटा दिन-रात एक-से दोनों कर डाले,
मघा भादों बरसाता है,
हा, इस अस्थिर काल-चक्र में जीवन जाता है।

फूल गये सर काँस बुढ़ापा पावस पै छाया,
खिलने लगी कपास शीत का शत्रु हाथ आया,
कृषी को क्वार पकाता है,
हा, इस अस्थिर काल-चक्र में जीवन जाता है।

शुद्ध हुए जल-वायु, खुला आकाश, खिले तारे,
बोये विविध अनाज, उगे अंकुर प्यारे-प्यारे,
दिवाली कातिक लाता है,
हा, इस अस्थिर काल-चक्र में जीवन जाता है।

शीतल बहे समीर, सभी को शीत सताता है,
हायन-भर का भेद जिसे दैवज्ञ बताता है,
अग्रहायन से पाता है,
हा, इस अस्थिर काल-चक्र में जीवन जाता है।

टपके ओस तुषार पड़े, जम जाता है पानी,
कट-कट बाजे दाँत मरी जल-शूरों की नानी,
पुजारी पौष न न्हाता है,
हा, इस अस्थिर काल-चक्र में जीवन जाता है ।

हुआ मकर का अन्त, घटी सरदी, अम्बा बौरे,
विकसे सुन्दर फूल अरुण, नीले, पीले, धौरे,
माघ मधु को जन्माता है,
हा, इस अस्थिर काल-चक्र में जीवन जाता है ।

खेत पके अब आँख ईश ने उन्नति की खोली,
अन्न मिला भर-पूर प्रजा के मन मानी होली,
फल्गुन फाग खिलाता है,
हा, इस अस्थिर काल-चक्र में जीवन जाता है।

विधु से इन का अब्द बड़ाई इतनी लेता है,
जिस का तिगुना मान मास पूरा कर देता है,
वही तो लोंद कहाता है,
हा, इस अस्थिर काल-चक्र में जीवन जाता है ।

किया न प्रभु से मेल, करेगा क्या मन के चीते,
अबलों बावन वर्ष वृथा शंकर तेरे बीते,
न पापों पै पछताता है,
हा, इस अस्थिर काल-चक्र में जीवन जाता है।
- नाथूराम शर्मा 'शंकर'
संकलन रूपाम्बरा से
सविता : सूरज; मही माता : धरती; कल्प लों : युगों तक; छदन : आवरण; मेदिनी : धरती; मेह : वर्षा; विहंग : पक्षी; झिलारे : छोटी झील; सर काँस : कास घास के तिनके; शीत का शत्रु : रजाई; क्वार : आश्विन का महीना; हायन : वर्ष; तुषार : हिम; जल-शूर : जो पानी से नहीं डरते; धौरे : सफेद, उजले; विधु : चांद; अब्द : वर्ष; लोंद : अधिकमास; मन के चीते : मन में सोच कर; अबलों : अबतक
विषय:
प्रकृति (37)
समय (6)

काव्यालय को प्राप्त: 15 Apr 2024. काव्यालय पर प्रकाशित: 20 Dec 2024

***
सहयोग दें
विज्ञापनों के विकर्षण से मुक्त, काव्य के सुकून का शान्तिदायक घर... काव्यालय ऐसा बना रहे, इसके लिए सहयोग दे।

₹ 500
₹ 250
अन्य राशि
इस महीने :
'एक आशीर्वाद'
दुष्यन्त कुमार


जा तेरे स्वप्न बड़े हों।
भावना की गोद से उतर कर
जल्द पृथ्वी पर चलना सीखें।
चाँद तारों सी अप्राप्य ऊँचाइयों के लिये
रूठना मचलना सीखें।
हँसें
मुस्कुराऐं
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
इस महीने :
'तोंद'
प्रदीप शुक्ला


कहते हैं सब लोग तोंद एक रोग बड़ा है
तोंद घटाएँ सभी चलन यह खूब चला है।
पर मानो यदि बात तोंद क्यों करनी कम है
सुख शान्ति सम्मान दायिनी तोंद में दम है।

औरों की क्या कहूं, मैं अपनी बात बताता
बचपन से ही रहा तोंद से सुखमय नाता।
जिससे भी की बात, अदब आँखों में पाया
नाम न लें गुरु, यार, मैं पंडित 'जी' कहलाया।

आज भी ऑफिस तक में तोंद से मान है मिलता
कितना भी हो बॉस शीर्ष, शुक्ला 'जी' कहता।
मान का यह
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...

छंद में लिखना - आसान तरकीब
भाग 5 गीतों की ओर

वाणी मुरारका
इस महीने :
'सीमा में संभावनाएँ'
चिराग जैन


आदेशों का दास नहीं है शाखा का आकार कभी,
गमले तक सीमित मत करना पौधे का संसार कभी।

जड़ के पाँव नहीं पसरे तो छाँव कहाँ से पाओगे?
जिस पर पंछी घर कर लें वो ठाँव कहाँ से लाओगे?
बालकनी में बंध पाया क्या, बरगद का ..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
संग्रह से कोई भी रचना | काव्य विभाग: शिलाधार युगवाणी नव-कुसुम काव्य-सेतु | प्रतिध्वनि | काव्य लेख
सम्पर्क करें | हमारा परिचय
सहयोग दें

a  MANASKRITI  website