सविता के सब ओर मही माता चकराती है,
घूम-घूम दिन, रात, महीना वर्ष मनाती है,
कल्प लों अन्त न आता है,
हा, इस अस्थिर काल-चक्र में जीवन जाता है।
छोड़ छदन प्राचीन, नये दल वृक्षों ने धारे,
देख विनाश, विकाश, रूप, रूपक न्यारे-न्यारे,
दुरङ्गी चैत दिखाता है,
हा, इस अस्थिर काल-चक्र में जीवन जाता है।
सूख गये सब खेत सुखा दी सारी हरियाली,
गहरी तीत निचोड़ मेदिनी रूखी कर डाली,
धूल वैशाख उड़ाता है,
हा, इस अस्थिर काल-चक्र में जीवन जाता है।
दामिनि को दमकाय दहाड़े धाराधर धाये,
मारुत ने झकझोर झुकाये झूमे झर लाये,
लगी आषाढ़ बुझाता है,
हा, इस अस्थिर काल-चक्र में जीवन जाता है।
गुल्म, लता, तरु-पुञ्ज अनूठे दृश्य दिखाते हैं,
बरसे मेह विहंग विलासी मङ्गल गाते हैं,
झुलाता श्रावण भाता है,
हा, इस अस्थिर काल-चक्र में जीवन जाता है।
उपजे जन्तु अनेक झिलारे झील, नदी, नाले,
भेद मिटा दिन-रात एक-से दोनों कर डाले,
मघा भादों बरसाता है,
हा, इस अस्थिर काल-चक्र में जीवन जाता है।
फूल गये सर काँस बुढ़ापा पावस पै छाया,
खिलने लगी कपास शीत का शत्रु हाथ आया,
कृषी को क्वार पकाता है,
हा, इस अस्थिर काल-चक्र में जीवन जाता है।
शुद्ध हुए जल-वायु, खुला आकाश, खिले तारे,
बोये विविध अनाज, उगे अंकुर प्यारे-प्यारे,
दिवाली कातिक लाता है,
हा, इस अस्थिर काल-चक्र में जीवन जाता है।
शीतल बहे समीर, सभी को शीत सताता है,
हायन-भर का भेद जिसे दैवज्ञ बताता है,
अग्रहायन से पाता है,
हा, इस अस्थिर काल-चक्र में जीवन जाता है।
टपके ओस तुषार पड़े, जम जाता है पानी,
कट-कट बाजे दाँत मरी जल-शूरों की नानी,
पुजारी पौष न न्हाता है,
हा, इस अस्थिर काल-चक्र में जीवन जाता है ।
हुआ मकर का अन्त, घटी सरदी, अम्बा बौरे,
विकसे सुन्दर फूल अरुण, नीले, पीले, धौरे,
माघ मधु को जन्माता है,
हा, इस अस्थिर काल-चक्र में जीवन जाता है ।
खेत पके अब आँख ईश ने उन्नति की खोली,
अन्न मिला भर-पूर प्रजा के मन मानी होली,
फल्गुन फाग खिलाता है,
हा, इस अस्थिर काल-चक्र में जीवन जाता है।
विधु से इन का अब्द बड़ाई इतनी लेता है,
जिस का तिगुना मान मास पूरा कर देता है,
वही तो लोंद कहाता है,
हा, इस अस्थिर काल-चक्र में जीवन जाता है ।
किया न प्रभु से मेल, करेगा क्या मन के चीते,
अबलों बावन वर्ष वृथा शंकर तेरे बीते,
न पापों पै पछताता है,
हा, इस अस्थिर काल-चक्र में जीवन जाता है।
काव्यालय को प्राप्त: 15 Apr 2024.
काव्यालय पर प्रकाशित: 20 Dec 2024