अप्रतिम कविताएँ
चाँद से थोड़ी सी गप्पें
(एक दस-ग्‍यारह साल की लड़की)

गोल हैं खूब मगर
आप तिरछे नज़र आते हैं ज़रा।
आप पहने हुए हैं कुल आकाश
तारों-जड़ा;
सिर्फ मुँह खोले हुए हैं अपना
गोरा चिट्टा
गोल मटोल,
अपनी पोशाक को फैलाए हुए चारों सिम्‍त।
आप कुछ तिरछे नज़र आते हैं जाने कैसे
- खूब हैं गोकि !

वाह जी वाह !
हमको बुद्धू ही निरा समझा है !
हम समझते ही नहीं जैसे कि
आपको बीमारी है :
आप घटते हैं तो घटते ही चले जाते हैं,
और बढ़ते हैं तो बस यानी कि
बढ़ते ही चले जाते हैं -
दम नहीं लेते हैं जब तक बिलकुल ही
गोल न हो जायें,
बिलकुल गोल।
यह मरज आपका अच्‍छा ही नहीं होने में
आता है।
यह न होता तो, कसम से, हम सच
कहते हैं -
आपसे शादी कर लेते -
फौरन ! ...

आप हँसते हैं, मगर
यों भी दिल खींच तो लेते ही हैं आप
(हाँ, जी) समुंदर की तरह,
ओ' मैं बेचैन-सी हो जाती हूँ
उसकी लहरों की तरह;
ज्‍वार-भाटा-सा अजब, जाने क्‍यों
उठने लगता है खयालों में मेरे
खाहमखाह!

जाओ, हटो!
ऐसे इनसान को हम प्‍यार नहीं करते हैं।
मुँह-दिखाई ही फकत
जो मेरा सरबस माँगे,
और फिर हाथ न आये;
मुफ्त कविताएँ सुने,
अपने दिल की न बताये;
जब भी आये,
यूँ ही उलझाये!
ऐसे इनसान को हम आखिर तक
प्‍यार नहीं करते हैं,
हाँ! समझ गये?



- शमशेर बहादुर सिंह
स्रोत: hindisamay.com

काव्यालय पर प्रकाशित: 23 Nov 2018

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'काल का वार्षिक विलास'
नाथूराम शर्मा 'शंकर'


सविता के सब ओर मही माता चकराती है,
घूम-घूम दिन, रात, महीना वर्ष मनाती है,
कल्प लों अन्त न आता है,
हा, इस अस्थिर काल-चक्र में जीवन जाता है।

छोड़ छदन प्राचीन, नये दल वृक्षों ने धारे,
देख विनाश, विकाश, रूप, रूपक न्यारे-न्यारे,
दुरङ्गी चैत दिखाता है,
हा, इस अस्थिर काल-चक्र में जीवन
..

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'ओ माँ बयार'
शान्ति मेहरोत्रा


सूरज को, कच्ची नींद से
जगाओ मत।
दूध-मुँहे बालक-सा
दिन भर झुंझलायेगा
मचलेगा, अलसायेगा
रो कर, चिल्ला कर,
घर सिर पर उठायेगा।
आदत बुरी है यह
..

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'आए दिन अलावों के'
इन्दिरा किसलय


आए दिन
जलते हुए, अलावों के !!

सलोनी सांझ
मखमली अंधेरा
थमा हुआ शोर
हर ओर
जी उठे दृश्य
मनोरम गांवों के !!

..

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