अप्रतिम कविताएँ
गौरा की बिदाई
तोरा दुलहा जगत से निराला उमा, मैना कहिलीं,
कुल ना कुटुम्व, मैया बाबा, हम अब लौं चुप रहिलीं !
सिगरी बरात टिकी पुर में बियाही जब से गौरा,
रीत व्योहार न जाने भुलाना कोहबर में दुलहा !
भूत औ परेत बराती, सबहिन का अचरज होइला,
भोजन पचास मन चाबैं तओ भूखेइ रहिला !
ससुरे में रहल जमाई, बसन तन ना पहिरे !
अद्भुत उमा सारे लच्छन, तू कइस पतियानी रे !
रीत गइला पूरा खजाना कहाँ से खरचें बहिना !
मास बरस दिन बीते कि, कब लौं परिल सहना !
पारवती सुनि सकुची, संभु से बोलिल बा -
बरस बीत गइले हर, बिदा ना करबाइल का ?
सारी जमात टिक गइली, सरम कुछू लागत ना !
सँगै बरातिन जमाई, हँसत बहिनी, जीजा !
हँसे संभु, चलु गौरा ते बिदा लै आवहु ना ,
सिगरी बरात, भाँग, डमरू समेट अब, जाइत बा !
गौरा चली ससुरारै, माई ते लिपटानी रे
केले के पातन लपेटी बिदा कर दीनी रे !
- प्रतिभा सक्सेना

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झर-झर बहते नेत्रों से,
कौन सा सत्य बहा होगा?
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जो कहीं नहीं कहा होगा।

झलकती सी बेचैनी को,
कितना धिक्कार मिला होगा?
बाद में सोचे है इंसान,
पहले अंधा-बहरा होगा।

तलाश करे या आस करे,
किस पर विश्वास ज़रा होगा?
..

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