अप्रतिम कविताएँ
गौरा का सुहाग
नैन भरे माई दिहिले, सुहाग भर भर हंडा,
एतन सुहाग गौरा पाइन धूम भइल तिहुँ खण्डा !
मारग में सारी मेहरियाँ दौरि आवन लगलीं,
गौरा के चरनन लगलीं सुहाग पावन लगलीं !

खेतन ते भागी पनघट से भगि आई, घाटन से भागी धुबिनियाँ
गोरस बहिल, ऐसी लुढकी मटकिया तौ हूँ न रुकली बवरिया
दौरी भडभूजी, मालिन, कुम्हारिन बढनी को फेंक कामवारी
गौरा लुटाइन सुहाग दोउ हाथन, लूटेन जगत के नारी,
ऊँची अटारिन खबर भइली, सुनि पहने ओढे लागीं घरनियाँ
करिके सिंगार घर आंगन अगोरे तक बचली फकत एक हँडिया
चुटकी भरिल गौरा उनहिन को दिहला, एतना रे भाग तुम्हारा,
दौरि दौरि लूटि लूटि लै गईं लुगइयां, जिनके सिंगार न पटारा !
एही चुटकिया जनम भर सहेजो, मँहगा सुहाग का सिंदुरवा
तन मन में पूरो, अइसल सँवारो रंग जाये सारी उमरिया !
गौरा का सेंदुर अजर अमर भइला, उन जैसी कौ बडभागिन रे,
इनही से पाये सुहाग सुख, दूध, पूत, तीनिउँ जगत की वासिन रे,
भुरजी, कुम्हरिन से जाँचित चुटकि भर, कन्या सुहाग भाग मांगे
गौरा की किरपा भइल कमहारिन पे जिनका सुहाग नित जागे !
- प्रतिभा सक्सेना
विषय:
शिव पार्वती (4)

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इस महीने :
'हमारी सहयात्रा'
ज्योत्सना मिश्रा


कभी-कभी जीवन कोई घोषणा नहीं करता—
वह बस बहता है,
जैसे कोई पुराना राग,
धीरे-धीरे आत्मा में उतरता हुआ,
बिना शोर, बिना आग्रह।

हमारे साथ के तीस वर्ष पूर्ण हुए हैं।
कभी लगता है हमने समय को जिया,
कभी लगता है समय ने हमें तराशा।
यह साथ केवल वर्ष नहीं थे—
यह दो आत्माओं का मौन संवाद था,
जो शब्दों से परे,
पर भावों से भरपूर रहा।

जब हमने साथ चलना शुरू किया,
तुम थे स्वप्नद्रष्टा—
शब्दों के जादूगर,
भविष्य के रंगीन रेखाचित्रों में डूबे हुए।
और मैं…
मैं थी वह ज़मीन
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इस महीने :
'तुम तो पहले ऐसे ना थे'
सत्या मिश्रा


तुम तो पहले ऐसे न थे
रात बिरात आओगे
देर सवेर आओगे
हम नींद में रहें
आँख ना खुले
तो रूठ जाओगे...

स्वप्न में आओगे
दिवास्वप्न दिखाओगे
हम कलम उठाएँगे
तो छिप जाओगे...

बेचैनियों का कभी
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इस महीने :
'कुछ प्रेम कविताएँ'
प्रदीप शुक्ला


1.
प्रेम कविता, कहानियाँ और फ़िल्में
जहाँ तक ले जा सकती हैं
मैं गया हूँ उसके पार
कई बार।
इक अजीब-सी बेचैनी होती है वहाँ
जी करता है थाम लूँ कोई चीज
कोई हाथ, कोई सहारा।
मैं टिक नहीं पाता वहाँ देर तक।।

सुनो,
अबसे
..

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