अप्रतिम कविताएँ
यह कैसी दुर्धर्ष चेतना
यह कैसी दुर्धर्ष चेतना, प्रतिपल बढ़ती ही रहती है
चिंतन के उत्तुंग शिखर पर, गिर-गिर चढ़ती ही रहती है

पग-पग पर ठोकर लगने से, नए-नए अनुभव जगते हैं
बहते हुए घाव लोहू की, लौ जैसे जलते लगते हैं
और उसी के लाल उजाले में विचार चलता रहता है
धीरे-धीरे जैसे अपनी केन नदी में जल बहता है

मन के भीतर नए सूर्य की, प्रतिमा गढ़ती ही रहती है
यह कैसी दुर्धर्ष चेतना, प्रतिपल बढ़ती ही रहती है

यह विचार परिवर्तनधर्मी होकर दाय नया गहता है
जय के प्रति विश्वास लिए, युग की सर्दी-गर्मी सहता है
बीते हुए समय के तेवर फिर-फिर रोज़ उलझते रहते
पीड़ा की किरणों से इसके, सारे द्वंद्व सुलझते रहते

नभ पर लिखे हुए भावी के अक्षर पढ़ती ही रहती है
कैसी यह दुर्धर्ष चेतना, प्रतिपल बढ़ती ही रहती है
- कृष्ण मुरारी पहारिया
दुर्धर्ष : प्रबल, जिसे वश में करना कठिन है | केन नदी : मध्यप्रदेश में बहने वाली एक बड़ी नदी

काव्यालय पर प्रकाशित: 31 May 2024

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इस महीने :
'काल का वार्षिक विलास'
नाथूराम शर्मा 'शंकर'


सविता के सब ओर मही माता चकराती है,
घूम-घूम दिन, रात, महीना वर्ष मनाती है,
कल्प लों अन्त न आता है,
हा, इस अस्थिर काल-चक्र में जीवन जाता है।

छोड़ छदन प्राचीन, नये दल वृक्षों ने धारे,
देख विनाश, विकाश, रूप, रूपक न्यारे-न्यारे,
दुरङ्गी चैत दिखाता है,
हा, इस अस्थिर काल-चक्र में जीवन
..

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इस महीने :
'ओ माँ बयार'
शान्ति मेहरोत्रा


सूरज को, कच्ची नींद से
जगाओ मत।
दूध-मुँहे बालक-सा
दिन भर झुंझलायेगा
मचलेगा, अलसायेगा
रो कर, चिल्ला कर,
घर सिर पर उठायेगा।
आदत बुरी है यह
..

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इस महीने :
'आए दिन अलावों के'
इन्दिरा किसलय


आए दिन
जलते हुए, अलावों के !!

सलोनी सांझ
मखमली अंधेरा
थमा हुआ शोर
हर ओर
जी उठे दृश्य
मनोरम गांवों के !!

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