अप्रतिम कविताएँ
यह कैसी दुर्धर्ष चेतना
यह कैसी दुर्धर्ष चेतना, प्रतिपल बढ़ती ही रहती है
चिंतन के उत्तुंग शिखर पर, गिर-गिर चढ़ती ही रहती है

पग-पग पर ठोकर लगने से, नए-नए अनुभव जगते हैं
बहते हुए घाव लोहू की, लौ जैसे जलते लगते हैं
और उसी के लाल उजाले में विचार चलता रहता है
धीरे-धीरे जैसे अपनी केन नदी में जल बहता है

मन के भीतर नए सूर्य की, प्रतिमा गढ़ती ही रहती है
यह कैसी दुर्धर्ष चेतना, प्रतिपल बढ़ती ही रहती है

यह विचार परिवर्तनधर्मी होकर दाय नया गहता है
जय के प्रति विश्वास लिए, युग की सर्दी-गर्मी सहता है
बीते हुए समय के तेवर फिर-फिर रोज़ उलझते रहते
पीड़ा की किरणों से इसके, सारे द्वंद्व सुलझते रहते

नभ पर लिखे हुए भावी के अक्षर पढ़ती ही रहती है
कैसी यह दुर्धर्ष चेतना, प्रतिपल बढ़ती ही रहती है
- कृष्ण मुरारी पहारिया
दुर्धर्ष : प्रबल, जिसे वश में करना कठिन है | केन नदी : मध्यप्रदेश में बहने वाली एक बड़ी नदी
विषय:
अध्यात्म दर्शन (36)

काव्यालय पर प्रकाशित: 31 May 2024

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इस महीने :
'हमारी सहयात्रा'
ज्योत्सना मिश्रा


कभी-कभी जीवन कोई घोषणा नहीं करता—
वह बस बहता है,
जैसे कोई पुराना राग,
धीरे-धीरे आत्मा में उतरता हुआ,
बिना शोर, बिना आग्रह।

हमारे साथ के तीस वर्ष पूर्ण हुए हैं।
कभी लगता है हमने समय को जिया,
कभी लगता है समय ने हमें तराशा।
यह साथ केवल वर्ष नहीं थे—
यह दो आत्माओं का मौन संवाद था,
जो शब्दों से परे,
पर भावों से भरपूर रहा।

जब हमने साथ चलना शुरू किया,
तुम थे स्वप्नद्रष्टा—
शब्दों के जादूगर,
भविष्य के रंगीन रेखाचित्रों में डूबे हुए।
और मैं…
मैं थी वह ज़मीन
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
इस महीने :
'तुम तो पहले ऐसे ना थे'
सत्या मिश्रा


तुम तो पहले ऐसे न थे
रात बिरात आओगे
देर सवेर आओगे
हम नींद में रहें
आँख ना खुले
तो रूठ जाओगे...

स्वप्न में आओगे
दिवास्वप्न दिखाओगे
हम कलम उठाएँगे
तो छिप जाओगे...

बेचैनियों का कभी
..

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इस महीने :
'कुछ प्रेम कविताएँ'
प्रदीप शुक्ला


1.
प्रेम कविता, कहानियाँ और फ़िल्में
जहाँ तक ले जा सकती हैं
मैं गया हूँ उसके पार
कई बार।
इक अजीब-सी बेचैनी होती है वहाँ
जी करता है थाम लूँ कोई चीज
कोई हाथ, कोई सहारा।
मैं टिक नहीं पाता वहाँ देर तक।।

सुनो,
अबसे
..

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