घाटियों में ऋतु सुखाने लगी है
मेघ धोये वस्त्र अनगिन रंग के
आ गए दिन, धूप के सत्संग के।
पर्वतों पर छन्द फिर बिखरा दिये हैं
लौटकर जाती घटाओं ने।
पेड़, फिर पढ़ने लगे हैं, धूप के अख़बार
फ़ुरसत से दिशाओं में।
निकल, फूलों के नशीले बार से
लड़खड़ाती है हवा
पाँव दो, पड़ते नहीं हैं ढंग के।
बँध न पाई, निर्झरों की बाँह, उफनाई नदी
तटों से मुँह जोड़ बतियाने लगी है।
निकल जंगल की भुजाओं से, एक आदिम गंध
आँगन की तरफ आने लगी है।
आँख में आकाश की चुभने लगे हैं
दृश्य शीतल, नेह-देह प्रसंग के।
आ गए दिन, धूप के सत्संग के।
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विनोद निगम