छिपा लेना
जब वेग पवन का बढ़ जाए
अंचल में दीप छिपा लेना।
कुछ कहते कहते रुक जाना
कुछ आंखों आंखों कह देना
कुछ सुन लेना चुपके चुपके
कुछ चुपके चुपके सह लेना
रहने देकर मन की मन में
तुम गीत प्रणय के गा लेना
जब वेग पवन का बढ़ जाए
अंचल में दीप छिपा लेना।
नभ में नीरव तारे होंगे
मन में होंगी बातें मन की
कुछ सपने होंगे रंग भरे
कुछ यादें बीते जीवन की
जब चांद घटा में मुस्काए
तुम उर की पीर सुला लेना
जब वेग पवन का बढ़ जाए
अंचल में दीप छिपा लेना।
कुछ संयम से कुछ निश्चय से
निज यौवन मन छलते जाना
तिल-तिल कण-कण सुरभित करते
कण-कण तिल-तिल जलते जाना
कुछ सहज नहीं होता है रे!
प्राणों से नेह निभा लेना
जब वेग पवन का बढ़ जाए
अंचल में दीप छिपा लेना।
जब बिखरा दे जागृति-पथ पर
निंदिया निज सपने मृदुदल से
नीरव तारों के दीप सुभग
बुझ चलें उषा के अंचल से,
शबनम पलकों की ओट लिए
कलि कुसुमों सम मुस्का देना
जब वेग पवन का बढ़ जाए
अंचल में दीप छिपा लेना।
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राम कृष्ण "कौशल"
काव्यालय पर प्रकाशित: 19 Nov 2021
इस महीने :
'स्वतंत्रता का दीपक'
गोपालसिंह नेपाली
घोर अंधकार हो, चल रही बयार हो,
आज द्वार द्वार पर यह दिया बुझे नहीं।
यह निशीथ का दिया ला रहा विहान है।
शक्ति का दिया हुआ, शक्ति को दिया हुआ,
भक्ति से दिया हुआ, यह स्वतंत्रता-दिया,
रुक रही न नाव हो, ज़ोर का बहाव हो,
आज गंगधार पर यह दिया बुझे नहीं!
यह स्वदेश का दिया प्राण के समान है!
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इस महीने :
'युद्ध की विभीषिका'
गजेन्द्र सिंह
युद्ध अगर अनिवार्य है सोचो समरांगण का क्या होगा?
ऐसे ही चलता रहा समर तो नई फसल का क्या होगा?
हर ओर धुएँ के बादल हैं, हर ओर आग ये फैली है।
बचपन की आँखें भयाक्रान्त, खण्डहर घर, धरती मैली है।
छाया नभ में काला पतझड़, खो गया कहाँ नीला मंजर?
झरनों का गाना था कल तक, पर आज मौत की रैली है।
किलकारी भरते
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