भोर का पाहुन दुआरे पर-
भोर वनगंधी हवाओं से किरन के फूल उतरे,
और मेरी देहरी पर कुछ अबोले शब्द बन बिखरे ।
उठो मेरी पद्मगन्धिनि उठो,
चन्दन बांह पर फैले सिवारी आबवाले,
मोरपंखी घन संभालो,
मौन अधरों पर लगी पाबंदियां अपनी उठा लो ।
अभी ठहरा हुआ है भोर का पाहुन दुआरे पर,
अभी ठहरा हुआ है बांसुरी का स्वर किनारे पर ।
उठो इस देहरी के फूल से वेणी संवारूंगा,
अनागत का सजल वरदान पलकों पर उतारूंगा ।
कि कल कोई न यह कह दे-
तुम्हारे द्वार पर उतरा हुआ जो
भोर का पाहुन अनादृत था ।
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रमानाथ शर्मा