अप्रतिम कविताएँ
आनन्द
क्यों न इस क्षण को अमर कर लूँ?
यह निस्तब्ध निशा
यह एकांत -
इस समय मुझे कोई चिंता नहीं
आज की सब ज़रूरतें पूरी हो चुकी हैं
अपनी भी और दूसरों की भी
कल की चिंता करने की
अभी आवश्यकता नहीं
घर के सब लोग निद्रामग्न हैं
और एकांत कक्ष में
दीपक जलाए
मैं अकेली बैठी हूँ
कितना शांत है समय
कमरे का तापमान ऐसा
जो शरीर को सुहावना लग रहा है
न अधिक गर्म न ठंडा
न पंखे की ज़रूरत
न कुछ ओढ़ने की
यह मध्य-रात्रि का समय
मेरा कितना अपना है
ऐसे समय में
जो लोग दिनभर नज़दीक रहते हैं
वे थोड़े दूर चले जाते हैं
और वे दूर वाले
न जाने कहाँ-कहाँ से चलकर
नज़दीक चले आते हैं।
उनमें से कइयों को पत्र लिख डाले हैं
दूरवालों को दिल के क़रीब बुलाकर
सीने से लगा लिया है
मन की बात कही है
सुनी है; इस समय
प्रतिपल दिमाग को घेरे रहने वाले
कभी न खत्म होने वाले
हज़ार हज़ार छोटे-छोटे
और बड़े-बड़े काम
याद नहीं आ रहे हैं
बड़ी निश्चिंत बैठी हूँ मैं
बड़े आराम में हूँ
यह फ़िक्र नहीं
कि बाल बिगड़े हैं या
साड़ी में सल भरी है
कि हाथों की चूड़ियाँ
साड़ी के रंग की हैं या नहीं
कि नौकरों ने सब काम
पूरे किये या नहीं
बच्चों ने खाना खाया कि नहीं
और यह भी चिंता नहीं
कि पतिदेव अकेले बैठे हैं
उनके पास जाकर बैठना चाहिए
अभी तो सब निद्रा-मग्न हैं
और मैं भी तो मग्न हूँ।
--- आनंदमग्न ---
जिस आनंद को
मैं दिनभर ढूँढती रही हूँ
घर में, और बाहर
पुत्र-पुत्री में, सगे-संबंधियों में
फल-फूलों में, बाग़-बगीचों में
काम-काज में, बाज़ार-हाट में
हीरे-मोतियों में, साज-सामानों में
पोथी-पुस्तकों में, दिवा-स्वप्नों में
वह आनंद तो यह रहा
इस समय, इस क्षण तो वह
बिना ढूँढे ही
बिना माँगे ही
आप से आप
अनायास ही प्राप्त हो गया है।
इस समय, इस एकांत में
मैं अनुभव कर रही हूँ
कि मैं केवल 'अपने' पास हूँ
मैं केवल 'मैं' हूँ।
- कुमुदिनी खेतान

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सविता के सब ओर मही माता चकराती है,
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कल्प लों अन्त न आता है,
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छोड़ छदन प्राचीन, नये दल वृक्षों ने धारे,
देख विनाश, विकाश, रूप, रूपक न्यारे-न्यारे,
दुरङ्गी चैत दिखाता है,
हा, इस अस्थिर काल-चक्र में जीवन
..

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..

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