समर्पित सत्य समर्पित स्वप्न
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भाग 3 | 64
34. वरदान (हास्य कविता)
दुखी दिख रहे थे पंडित जी, हुयी दोस्त को चिंता भारी
उसने कहा कहो पंडितजी, तुम्हे हो गयी क्या बीमारी?
पंडित जी ने कहा कि मेरी पत्नी से हो गयी लड़ाई
पूरे हफ्ते कुछ न बोलने की उसने सौगंध उठाई।

कहा दोस्त ने कठिन नहीं कुछ, शपथ श्रीमती की तुड़वाना
फूल वगैरह ले जाना कुछ प्यार जता कर उसे मनाना
पंडित जी ने कहा कि तुमने कैसी उल्टी बात सुझाई?
मैं चिंतित हूँ, क्योंकि शपथ का आज आख़िरी दिन है भाई।

पंडित जी को नहीं पता था, उनकी पत्नी वहीं खड़ी थी
बड़े धैर्य से, बड़े ध्यान से, उसने पति की बात सुनी थी
उसने कहा सुनो प्रिय पंडित, अब मैं ऐसा जाप करूँगी
अगले जन्म उसी के बल से, फिर से तुमसे ब्याह करूँगी।

मुझसे छुटकारा पाना हो, तो फिर एक शर्त है मेरी
सारा जीवन भक्ति भाव से, प्रतिदिन करो चाकरी मेरी
पत्नी की धमकी से डर कर, पंडित जी ने शर्त मान ली
पूरा जीवन भक्ति भाव से पत्नीव्रत की बात ठान ली।

यही सोचकर खुश होते थे, इसके बाद मुक्ति पाऊँगा
अगले जन्म कुँवारा रह कर शान्ति और सुख से जीयूँगा
इसी आस में बड़ी खुशी से, की आजीवन पत्नी सेवा
उनको था विश्वास कि पत्नी सेवा से मिलता है मेवा।

सुख से जीवनयापन करके जब पहुँचे वह यम के द्वारे
उनका स्वागत करने आयी स्वयं उर्वशी बाँह पसारे
धर्मराज ने खाता खोला, एक-एक पन्ने को देखा
फिर अचरज से बड़े ध्यान से पंडित जी को निरखा परखा।

बोले, वत्स प्रसन्न हुआ मैं, तुम तो सचमुच बहुत गुणी हो
ऐसी की निस्वार्थ साधना, तुम चरित्र के बड़े धनी हो
तुमने अपने पत्नीव्रत से पति की मर्यादा रक्खी है
पूरा जीवन, प्रतिदिन, प्रतिपल, तुमने पत्नी सेवा की है।

रोज़ सबेरे बेड-टी देकर, तुमने पहले उसे जगाया
तुमने फिर झाडू पोछा कर, लंच नाश्ता डिनर बनाया
तुमने दिन भर किया परिश्रम, वह केवल कविता लिखती थी
और फेसबुक पर सखियों संग, फैशन की चर्चा करती थी।

उसकी सुनी सभी कविताएं, फिर भी मुँह पर शिकन न आयी
तुम श्रोता आदर्श, तुम्हारी वाह-वाह में कमी न आयी
जब वह लेटे-लेटे थकती, तब उसको बाज़ार घुमाया
उसके लिए खरीदी साड़ी, उसको क्रेडिट कार्ड दिलाया।

इटली के जूते दिलवाये, पेरिस का परफ़्यूम दिलाया
ऐसा पत्नीव्रत पति बनकर, तुमने इतना पुण्य कमाया
तुम्हें परम आनंद मिल सके, इसीलिए यह वर देता हूँ
सातों जन्म उसी पत्नी की सेवा का अवसर देता हूँ।

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