समर्पित सत्य समर्पित स्वप्न
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भाग 1 | 21
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ओट – घूँघट, आड़; आतिश – आग; वजूद – अस्तित्व; आतिशे वजूद – अस्तित्व की चमक; अज़ल – सृष्टि का आरम्भ; आफ़ताब – सूरज; नूरे-माहताब – चाँद की ज्योति; आशियाँ – घर; मुख़्तसर – संक्षिप्त; रश्क - ईर्ष्या
7. दास्ताने-इश्क
एक बार चाँद ने चाँदनी को थाम कर,
पर्वतों की ओट से, बादलों से झाँक कर,

यह कहा, कि तू मेरी शख्शियत का है निशाँ
मेरी आतिशे वजूद, मेरी राह की शमा।

तू कहाँ से आयी है, इस क़दर हसीन है,
तू है रौनक़े चमन, मस्त नाज़नीन है।

मैं तो अपने आप में, सिर्फ़ इक सवाल हूँ,
ढल सका न गीत में, अदना सा ख़याल हूँ।

घूमता हूँ बेसबब, कोई जुस्तजू नहीं,
मेरी ज़िंदगी को अब, कोई आरज़ू नहीं।

बुझ गयी वह आग हूँ, किस क़दर वीरान हूँ,
पत्थरों का ढेर हूँ, एक रेगिस्तान हूँ।

चांदनी सिहर गयी, लाज से सिमट गयी,
और कसमसा के तब चाँद से लिपट गयी।

फिर कहा, “अज़ल से है, तेरा मेरा सिलसिला,
मैं तेरे क़रीब हूँ, ज़िंदगी से क्यों गिला?

आयी आफ़ताब से, नूरे-माहताब हूँ,
तेरे हर सवाल का, एक मैं जवाब हूँ।

तू है मेरा आशियाँ, तू मेरा जहान है,
तू कहीं हो कुछ भी हो, चाँदनी का चाँद है।“

प्यार का उफ़ान फिर दोनों के दिल में उठा,
चाँदनी की ज्योति से चाँद जगमगा उठा।

बस यही है इश्क की मुख़्तसर सी दास्ताँ,
यह है हसरते-ज़मीं, यह है रश्के-आस्माँ।

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