समर्पित सत्य समर्पित स्वप्न
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भाग 1 | 35
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शब – रात; शबनम – ओस; तसव्वुर – विचार, कल्पना; माज़ी – बीता हुआ समय, अतीत; तबस्सुम – मुस्कान; उफ़क़ – क्षितिज; वक्ते-रुख़सत – विदाई के समय; अयाँ – अभिव्यक्त; चश्मे पुरनम – भीगी हुई आँखें
17. यादगारों के साये
जब कभी तेरी याद आती है
चाँदनी में नहा के आती है।
भीग जाते हैं आँख में सपने
शब में शबनम बहा के आती है।

मेरी तनहाई के तसव्वुर में
तेरी तसवीर उभर आती है।
तू नहीं है तो तेरी याद सही
ज़िन्दगी कुछ तो संवर जाती है।

जब बहारों का ज़िक्र आता है
मेरे माज़ी की दास्तानों में,
तब तेरे फूल से तबस्सुम का
रंग भरता है आसमानों में।

तू कहीं दूर उफ़क से चल कर
मेरे ख़्यालों में उतर आती है।
मेरे वीरान बियाबानों में
प्यार बन कर के बिखर जाती है।

तू किसी पंखरी के दामन पर
ओस की तरह झिलमिलाती है।
मेरी रातों की हसरतें बन कर
तू सितारों में टिमटिमाती है।

वक्ते रुख़सत की बेबसी ऐसी
आँख से आरज़ू अयाँ न हुई।
दिल से आई थी बात होठों तक
बेज़ुबानी मगर ज़ुबाँ न हुई।

एक लमहे के दर्द को लेकर
कितनी सदियां उदास रहती हैं।
दूरियाँ जो कभी नहीं मिटतीं
मेरी मंज़िल के पास रहती हैं।

रात आई तो बेकली लेकर
सहर आई तो बेक़रार आई।
चन्द उलझे हुये से अफ़साने
ज़िन्दगी और कुछ नहीं लाई।

चश्मे पुरनम बही, बही, न बही।
ज़िन्दगी है, रही, रही, न रही।
तुम तो कह दो जो तुमको कहना था
मेरा क्या है, कही, कही, न कही।

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