14. मेरे सपनों
ओ मेरे युग-युग के साथी
मेरे सपनो।
कभी मौन,
अति मुखर कभी तुम।
तुम मेरे अतीत की छाया,
मेरे सूनेपन के दर्पण।
मेरे कुंठित जीवनक्रम में
परिवर्तन की मरीचिका तुम।
नित नूतन सिंगार सजा कर,
नये दिनों के वादे लाकर,
मध्य-रात्रि की तनहाई में,
तुम मुझको बहलाने आते।
जैसे बीते दिन की संध्या,
नई सुबह का भेष बदल कर,
रोज़ मुझे छलने आती है।
अपनी यह गतिहीन ज़िन्दगी,
मैं भी अब पहचान गया हूँ।
तुम से कोई गिला नहीं है,
मेरे अपनो।
शुन्य-सुशोभित,
मेरे सपनो।
मेरे सपनो।
कभी मौन,
अति मुखर कभी तुम।
तुम मेरे अतीत की छाया,
मेरे सूनेपन के दर्पण।
मेरे कुंठित जीवनक्रम में
परिवर्तन की मरीचिका तुम।
नित नूतन सिंगार सजा कर,
नये दिनों के वादे लाकर,
मध्य-रात्रि की तनहाई में,
तुम मुझको बहलाने आते।
जैसे बीते दिन की संध्या,
नई सुबह का भेष बदल कर,
रोज़ मुझे छलने आती है।
अपनी यह गतिहीन ज़िन्दगी,
मैं भी अब पहचान गया हूँ।
तुम से कोई गिला नहीं है,
मेरे अपनो।
शुन्य-सुशोभित,
मेरे सपनो।
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