मुक्तक
कभी शाखों में थरथराती है
कभी काँटों में कसमसाती है
मेरी बहार ज़िन्दगी के ग़ुलशन में
फूल की पंखुरी पे सो जाती है।
कभी शाखों में थरथराती है
कभी काँटों में कसमसाती है
मेरी बहार ज़िन्दगी के ग़ुलशन में
फूल की पंखुरी पे सो जाती है।
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जब कभी चाँद घटाओं से लिपट जाता है
इक हसीं ख़्वाब निगाहों में सिमट जाता है,
और फूलों से भरी शाख़ लचकती है कोई
मुझको उस वक़्त तुम्हारा ही खयाल आता है।
इक हसीं ख़्वाब निगाहों में सिमट जाता है,
और फूलों से भरी शाख़ लचकती है कोई
मुझको उस वक़्त तुम्हारा ही खयाल आता है।
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