समर्पित सत्य समर्पित स्वप्न
भाग 2
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शबे फ़िराक – विरह की रात; नज़्म – कविता;
25. शबे फ़िराक़ है और मुस्कुराये बैठे हैं
शबे फ़िराक़ है और मुस्कुराये बैठे हैं
किसी की याद की शम्मा जलाये बैठे हैं।
कहाँ ये वक़्त, जो बढ़ता ही चला जाता है
कहाँ ये हम कि जहाँ पर थे वहीं बैठे हैं।
हमें अभी भी उन्ही का ख़याल आता है
बहुत दिनों से जो हमको भुलाये बैठे हैं।
हमें खबर है कि इसकी दवा नहीं कोई
मगर ये दर्द गले से लगाए बैठे हैं।
ये नज़्म उसकी है, इस पर उसी के साये हैं
कि जिसके प्यार की हम लौ लगाए बैठे हैं।
किसी की याद की शम्मा जलाये बैठे हैं।
कहाँ ये वक़्त, जो बढ़ता ही चला जाता है
कहाँ ये हम कि जहाँ पर थे वहीं बैठे हैं।
हमें अभी भी उन्ही का ख़याल आता है
बहुत दिनों से जो हमको भुलाये बैठे हैं।
हमें खबर है कि इसकी दवा नहीं कोई
मगर ये दर्द गले से लगाए बैठे हैं।
ये नज़्म उसकी है, इस पर उसी के साये हैं
कि जिसके प्यार की हम लौ लगाए बैठे हैं।
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