समर्पित सत्य समर्पित स्वप्न
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भाग 1 | 29
13. कोलाहल
यह कैसा अजीब कोलाहल,
यह कैसा विस्फोट भयंकर,
क्यों विचलित हो गया अचानक
शांत संतुलित मानसरोवर।

किसी हिमालय की पीड़ा से,
द्रवित, व्यथित, उद्वेलित, व्याकुल,
सागर का विराट वक्षस्थल।

युगों युगों की रेगिस्तानी,
मेरी आँखों में भर आया,
आज कहाँ से खारापानी?
अंतरतम की गहराई में,
कैसी एक चुभन अनजानी।

बहुत दिनों की भूली बिसरी,
शायद कोई याद तुम्हारी,
दूर क्षितिज के पार कहीं से,
नीलकमल के नीलांचल से,
आकर उतरी मेरे मन में।
बिखर गयी है, भटक गयी है,
इस निर्जन, वीराने वन में।
फिर से उसे संजोकर रख लें,
आज तुम्हारे ही मधुवन में।

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