समर्पित सत्य समर्पित स्वप्न
भाग 2
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वादे सबा – सवेरे की हवा; छरहरी – दुबली पतली सुन्दर; शीरीं – मिठास, प्रसिद्ध लोक कथा शीरीं-फ़रहाद की नायिका
29. आम की याद आती रही साल भर
आपकी याद आती रही रात भर
चश्मेनम मुस्कुराती रही रात भर।
चश्मेनम मुस्कुराती रही रात भर।
(मखदूम मोहिनुद्दीन की ग़ज़ल पर पैरोडी)
*
आम की याद आती रही साल भर
बस ख़िज़ाँ मुस्कुराती रही साल भर।
एक शायर बगीचों में भटका किया
एक बुलबुल चिढाती रही साल भर।
आम आया गया, तू न आयी मगर
बस हवा सनसनाती रही साल भर।
एक चौसा के आरिज़, वो मीठी महक
कुछ कमी सी सताती रही साल भर।
लखनऊ का अज़ीज़ है सफेदा लज़ीज़
उसकी चर्चा ही चलती रही सालभर।
एक अल्फांजो, जिसपे हैं सब फ़िदा
उसको दुनिया बुलाती रही साल भर।
आम कहिये न इसको, ये तो ख़ास है
इससे जन्नत सँवरती रही साल भर।
लौट पायी नहीं मेरी वादे सबा
जोकि तुझको सजाती रही साल भर।
तेरी जैसी ही है छरहरी दश-हरी
बन के शीरीं लुभाती रही साल भर।
मैं यहां जंगलों में भटकता रहा
तू कहाँ ग़ुल खिलाती रही साल भर?
बस ख़िज़ाँ मुस्कुराती रही साल भर।
एक शायर बगीचों में भटका किया
एक बुलबुल चिढाती रही साल भर।
आम आया गया, तू न आयी मगर
बस हवा सनसनाती रही साल भर।
एक चौसा के आरिज़, वो मीठी महक
कुछ कमी सी सताती रही साल भर।
लखनऊ का अज़ीज़ है सफेदा लज़ीज़
उसकी चर्चा ही चलती रही सालभर।
एक अल्फांजो, जिसपे हैं सब फ़िदा
उसको दुनिया बुलाती रही साल भर।
आम कहिये न इसको, ये तो ख़ास है
इससे जन्नत सँवरती रही साल भर।
लौट पायी नहीं मेरी वादे सबा
जोकि तुझको सजाती रही साल भर।
तेरी जैसी ही है छरहरी दश-हरी
बन के शीरीं लुभाती रही साल भर।
मैं यहां जंगलों में भटकता रहा
तू कहाँ ग़ुल खिलाती रही साल भर?
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