समर्पित सत्य समर्पित स्वप्न
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भाग 1 | 33
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आग़ाज़ – आरम्भ; गुल-ए-आरिज़ – गाल का फूल; मानिंद – जैसा; क़हकशाँ – आकाश गंगा
16. आग़ाज़ नहीं, अंजाम नहीं
मैं निगाहों से उसे प्यार किया करता हूँ।
सिर्फ जज़्बात का इज़हार किया करता हूँ।
चाँदनी खुद मेरी बाहों में पिघल जाती है
मैं तो बस चाँद का दीदार किया करता हूँ।

प्यार बन कर के निगाहों में निखर जाता हूँ।
अश्क बन कर ग़ुल-ए-आरिज़ पे सँवर जाता हूँ।
एक मीठी सी नज़र जब भी मुझे छूती है
मैं किसी ख़्वाब के मानिंद बिखर जाता हूँ।

जाने किस ओर से आया हूँ, किधर जाता हूँ।
क़हकशाँ साथ में चलती है जिधर जाता हूँ।
अपनी धुन में ही मगन चलता ही रहता हूँ मगर
कोई पीछे से पुकारे तो ठहर जाता हूँ।

मैं ज़माने में ज़माने से जुदा रहता हूँ।
चंद यादों के धुंधलके में छुपा रहता हूँ।
इक समुन्दर की लहर कब से बुलाती है मुझे
एक पर्वत सा मैं चुपचाप खड़ा रहता हूँ|

एक एहसास है, सीने में लिये फिरता हूँ।
एक आवाज़ हैं, हर वक़्त सुना करता हूँ|
वह तो बिजली की तरह सिर्फ घड़ी भर चमकी
मैं उस आग में दिन रात जला करता हूँ|

मुझको यह शौक़ है, मैं यूं ही जिया करता हूँ।
प्यार रस्ते से है, मैं यूं ही चला करता हूँ।
कोई आग़ाज़ नहीं, कोई भी अंजाम नहीं
मैं बस इस पार से उस पार बहा करता हूँ।

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