अप्रतिम कविताएँ

प्रवासी गीत
चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर;
जहाँ अभी तक बाट तक रही
ज्योतिहीन गीले नयनों से
(जिनमें हैं भविष्य के सपने
कल के ही बीते सपनों से),
आँचल में मातृत्व समेटे,
माँ की क्षीण, टूटती काया।
वृद्ध पिता भी थका पराजित
किन्तु प्रवासी पुत्र न आया।
साँसें भी बोझिल लगती हैं
उस बूढ़ी दुर्बल छाती पर।
चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर।

चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर;
जहाँ बहन की कातर आँखें
ताक रही हैं नीला अम्बर।
आँसू से मिट गई उसी की
सजी हुई अल्पना द्वार पर।
सूना रहा दूज का आसन,
चाँद सरीखा भाई न आया।
अपनी सीमाओं में बंदी,
एक प्रवासी लौट न पाया।
सूख गया रोचना हाँथ में,
बिखर गये चावल के दाने।
छोटी बहन उदास, रुवासी,
भैया आये नहीं मनाने।
अब तो कितनी धूल जम गई
राखी की रेशम डोरी पर।
चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर।

चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर।
कितना विषम, विवश है जीवन!
रोज़गार के कितने बन्धन!
केवल एक पत्र आया है,
छोटा सा संदेश आया है,
बहुत व्यस्त हैं, आ न सकेंगे।
शायद अगले साल मिलेंगे।
एक वर्ष की और प्रतीक्षा,
ममता की यह विकट परीक्षा।
धीरे धीरे दिये बुझ रहे
हैं आशाओं की देहरी पर।
चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर।

चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर।
अगला साल कहाँ आता है
आखिर सब कुछ खो जाता है
अन्तराल की गहराई में।
जीवन तो चलता रहता है
भीड़ भाड़ की तनहाई में।
नई नई महिफ़िलें लगेंगी,
नये दोस्त अहबाब मिलेंगे।
इस मिथ्या माया नगरी में
नये साज़ो-सामान सजेंगे।
लेकिन फिर वह बात न होगी,
जो अपने हैं, वह न रहेंगे।
घर का वह माहौल न होगा,
ये बीते क्षण मिल न सकेंगे।
वर्तमान तो जल जाता है
काल देवता की काठी पर।
चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर।

चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर।
जहाँ अभी भी प्यार मिलेगा,
रूठे तो मनुहार मिलेगा,
अपने सर की कसम मिलेगी,
नाज़ुक सा इसरार मिलेगा।
होली और दिवाली होगी,
राखी का त्योहार मिलेगा।
सावन की बौछार मिलेगी,
मधुरिम मेघ-मल्हार मिलेगा।
धुनक धुनक ढोलक की धुन पर
कजरी का उपहार मिलेगा।
एक सरल संसार मिलेगा,
एक ठोस आधार मिलेगा
एक अटल विश्वास जगेगा,
अपनी प्रामाणिक हस्ती पर।
चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर।

चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर।
पूरी होती नहीं प्रतीक्षा,
कभी प्रवासी लौट न पाये।
कितना रोती रही यशोदा,
गये द्वारका श्याम न आये।
दशरथ गए सिधार चिता, पर
राम गए वनवास, न आये।
कितने रक्षाबन्धन बीते,
भैया गये विदेश, न आये।
अम्बर एक, एक है पृथ्वी,
फिर भी देश-देश दूरी पर।
चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर।

चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर।
जहाँ प्रतीक्षा करते करते
सूख गई आँसू की सरिता।
उद्वेलित, उत्पीड़ित मन के
आहत सपनों की आकुलता।
तकते तकते बाट, चिता पर।
राख हो गई माँ की ममता।
दूर गगन के पार गई वह
आँखों में ले सिर्फ विवशता।
एक फूल ही अर्पित कर दें
उस सूखी, जर्जर अस्थी पर।
चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर।

चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर।
जहाँ अभी वह राख मिलेगी,
जिसमें निहित एक स्नेहिल छवि,
स्मृतियों के कोमल स्वर में
मधुर मधुर लोरी गायेगी।
और उसी आँचल में छिप कर,
किसी प्रवासी मन की पीड़ा,
युगों युगों की यह व्याकुलता,
पिघल पिघल कर बह जायेगी।
एक अलौकिक शान्ति मिलेगी।
आँख मूँद कर सो जायेंगे,
सर रख कर माँ की मिट्टी पर।
चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर।
- विनोद तिवारी
काव्य संकलन समर्पित सत्य समर्पित स्वप्न

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अनुवाद ~ प्रियदर्शन

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स्वागत है अपनी...
अपनी
..

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होलोकॉस्ट में एक कविता
~ प्रियदर्शन

लेकिन इस कंकाल सी लड़की के भीतर एक कविता बची हुई थी-- मनुष्य के विवेक पर आस्था रखने वाली एक कविता। वह देख रही थी कि अमेरिकी सैनिक वहाँ पहुँच रहे हैं। इनमें सबसे आगे कर्ट क्लाइन था। उसने उससे पूछा कि वह जर्मन या अंग्रेजी कुछ बोल सकती है? गर्डा बताती है कि वह 'ज्यू' है। कर्ट क्लाइन बताता है कि वह भी 'ज्यू' है। लेकिन उसे सबसे ज़्यादा यह बात हैरानी में डालती है कि इसके बाद गर्डा जर्मन कवि गेटे (Goethe) की कविता 'डिवाइन' की एक पंक्ति बोलती है...

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राष्ट्र वसन्त
रामदयाल पाण्डेय

पिकी पुकारती रही, पुकारते धरा-गगन;
मगर कहीं रुके नहीं वसन्त के चपल चरण।

असंख्य काँपते नयन लिये विपिन हुआ विकल;
असंख्य बाहु हैं विकल, कि प्राण हैं रहे मचल;
असंख्य कंठ खोलकर 'कुहू कुहू' पुकारती;
वियोगिनी वसन्त की...

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