ऐसी दौड़ी फगुनाहट ढाणी चौक फलांग
फागुन आया खेत में गये पड़ोसी जान।
आम बौराया आंगना कोयल चढ़ी अटार
चंग द्वार दे दादर मौसम हुआ बहार।
दूब फूल की गुदगुदी बतरस चढ़ी मिठास
मुलके दादी भामरी मौसम को है आस।
वर गेहूं बाली सजा खड़ी फ़सल बारात
सुग्गा छेड़े पी कहाँ सरसों पीली गात।
ऋतु के मोखे सब खड़े पाने को सौगात
मानक बाँटे छाँट कर टेसू ढाक पलाश।
ढीठ छोरियाँ तितलियाँ रोकें राह वसंत
धरती सब क्यारी हुई अम्बर हुआ पतंग।
मौसम के मतदान में हुआ अराजक काम
पतझर में घायल हुए निरे पात पैगाम।
दबा बनारस पान को पीक दयई यौं डार
चैत गुनगुनी दोपहर गुलमोहर कचनार।
सजे माँडने आँगने होली के त्योहार
बुरी बलायें जल मरें शगुन सजाए द्वार।
मन के आँगन रच गए कुंकुम अबीर गुलाल
लाली फागुन माह की बढ़े साल दर साल।
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पूर्णिमा वर्मन
होलोकॉस्ट में एक कविता
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प्रियदर्शन
लेकिन इस कंकाल सी लड़की के भीतर एक कविता बची हुई थी-- मनुष्य के विवेक पर आस्था रखने वाली एक कविता। वह देख रही थी कि अमेरिकी सैनिक वहाँ पहुँच रहे हैं। इनमें सबसे आगे कर्ट क्लाइन था। उसने उससे पूछा कि वह जर्मन या अंग्रेजी कुछ बोल सकती है? गर्डा बताती है कि वह 'ज्यू' है। कर्ट क्लाइन बताता है कि वह भी 'ज्यू' है। लेकिन उसे सबसे ज़्यादा यह बात हैरानी में डालती है कि इसके बाद गर्डा जर्मन कवि
गेटे (Goethe) की कविता
'डिवाइन' की एक पंक्ति बोलती है...
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राष्ट्र वसन्त
रामदयाल पाण्डेय
पिकी पुकारती रही, पुकारते धरा-गगन;
मगर कहीं रुके नहीं वसन्त के चपल चरण।
असंख्य काँपते नयन लिये विपिन हुआ विकल;
असंख्य बाहु हैं विकल, कि प्राण हैं रहे मचल;
असंख्य कंठ खोलकर 'कुहू कुहू' पुकारती;
वियोगिनी वसन्त की...
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