अप्रतिम कविताएँ
पतझड़ की पगलाई धूप
भोर भई जो आँखें मींचे,
तकिये को सिरहाने खींचे,
लोट गई इक बार पीठ पर
ले लम्बी जम्हाई धूप,
अनमन सी अलसाई धूप |

पोंछ रात का बिखरा काजल,
सूरज नीचे दबता आँचल,
खींच अलग हो दबे पैर से,
देह-चुनर सरकाई धूप,
यौवन ज्यों सुलगाई धूप |

फुदक-फुदक खेले आँगन भर
खाने-खाने एक पाँव पर,
पत्ती-पत्ती आँख-मिचौली
बचपन सी बौराई धूप,
पतझड़ की पगलाई धूप |
- मानोशी चटर्जी
Manoshi Chatterjee
Email : [email protected]

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झर-झर बहते नेत्रों से,
कौन सा सत्य बहा होगा?
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जो कहीं नहीं कहा होगा।

झलकती सी बेचैनी को,
कितना धिक्कार मिला होगा?
बाद में सोचे है इंसान,
पहले अंधा-बहरा होगा।

तलाश करे या आस करे,
किस पर विश्वास ज़रा होगा?
..

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