अप्रतिम कविताएँ
मैं दृष्टा हूँ
देखता हूँ गगन, सुमन और समुंदर की तरुणाई को,
प्रति पल धीमी होती हुई इस समय की अरुणाई को।
दु:ख के रक्त कणोंसे लतपथ जीवन के अवसाद को,
या सुख के प्यालों से छके हुए मन के अंतर्नाद को।

शीत उष्ण और वर्षा पतझड़ ऋतुएं आती जाती हैं,
इस शरीर और मन के द्वारों पर दस्तक दे जाती हैं।
मिलना और बिछोह हृदय के तारो को सहलाता है,
इस जीवन का मायाजाल शरीर को बांधे जाता है।

पर मैं लिप्त नहीं, मैं भुक्त नहीं,
अतृप्त नहीं, आसक्त नहीं।
ये समग्र विलास है जग मेरा,
पर मैं करण नहीं मैं संज्ञा नहीं।

मैं तो केवल दृष्टा हूँ,
बिन आँखों के, बिन साँसों के।
देख रहा हूँ हो विस्मित,
जिस सृष्टि का मैं सृष्टा हूँ।
- रवि सिंघल
Ravi Singhal
Email: [email protected]
Ravi Singhal
Email: [email protected]

***
सहयोग दें
विज्ञापनों के विकर्षण से मुक्त, काव्य के सौन्दर्य और सुकून का शान्तिदायक घर... काव्यालय ऐसा बना रहे, इसके लिए सहयोग दे।

₹ 500
₹ 250
अन्य राशि
इस महीने :
'अन्त'
दिव्या ओंकारी ’गरिमा’


झर-झर बहते नेत्रों से,
कौन सा सत्य बहा होगा?
वो सत्य बना आखिर पानी,
जो कहीं नहीं कहा होगा।

झलकती सी बेचैनी को,
कितना धिक्कार मिला होगा?
बाद में सोचे है इंसान,
पहले अंधा-बहरा होगा।

तलाश करे या आस करे,
किस पर विश्वास ज़रा होगा?
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
संग्रह से कोई भी रचना | काव्य विभाग: शिलाधार युगवाणी नव-कुसुम काव्य-सेतु | प्रतिध्वनि | काव्य लेख
सम्पर्क करें | हमारा परिचय
सहयोग दें

a  MANASKRITI  website